एक बार मेरे बटाई खेत के पड़ोस में एक बरई ने बटाई खेत मकई के लिए लिया था। मकई क्या असल में उनको ककड़ी, तोरई, लोबिया आदि से मतलब था। इसके विपरीत मेरे पिताजी निराई के समय ही वह सब उखाड़ फेंकते, उनका तर्क था यह मकई को कमजोर कर देता है। ख़ैर, इधर का सावन आया उधर बरई के खेत में ककड़ी और खीरा ने जन्म लेना शुरू कर दिया। तब किसान और उसका परिवार घर से ज़्यादा खेत पर वक्त गुजारते थे। स्कूल से आने के बाद बस्ता लेकर हम भी खेत पर पहुँच जाते। दोपहर तक निराई करने के बाद भौंरिया डालने का कार्यक्रम चलता या कभी कभी माँ घर से सुबह ही भोजन बनाकर ले जातीं। उन दिनों खेतों के प्रति मोह रहता था। कभी भी जाओ कुछ न कुछ आपको खाने को मिल ही जायेगा। आम, इमली, कैथा, बेर, खीरा, ककड़ी, चना, मटर, होरा मसलन आप यदि खेत गए हैं तो कुछ न कुछ वहां से खाकर ही आयेंगें और नहीं तो चने का साग ही कहा लिया।
एक दिन दद्दा से सुना 'इस बरैना का दिमाग ख़राब है बताओ भला मकई में इतनी ककड़ी खीरा बो दिया है कि आप खेत के अंदर नहीं घुस सकते।" सुनकर कौतूहल जागा और खीझ के साथ मन ही मन मैंने कहा 'तुमने तो जो जमतुआ जो उगे थे उन्हें भी उखाड़ फेंका।" कम से कम उन्हें अपने बच्चों की फिक्र तो है।
एक दिन जब खेत पर कोई नहीं था पड़ोसी के खेत में जैसे ही घुसने वाला था वह आ गया और जो डांट पिलाई, नानी याद आ गई, मतलब मारते मारते ही छोड़ा। जब खेत की तरफ जाता पहले एक चक्कर उसके खेत के लगाता है कि नहीं यह देखने के लिए, लेकिन हमेशा निराशा हाथ लगती। बड़ा कर्रा रखवाला था। हमेशा खेत पर मिलता। मकई में अभी बुढ़िया के बाल भी नहीं आये कि उसने माचा भी बना लिया। हमारा तो खैर भुट्टे लगने शुरू हुए तब बना।
एक दिन मैं और मेरा भाई माचा पर बैठकर रखवाली कर रहे थे। सुआ कौआ उड़ा रहे थे। मैंने मन मजबूत करके कहा चच्चा एक ककड़ी देना। उसने साफ इंकार कर दिया बोला अपने बाप को बोलो उन्होंने क्यों नहीं बोया। मुझे कोई जवाब न सूझा। वापस आकर बैठ गया माचे पर। फिर मुझे रहीम दास का एक दोहा याद आया। मैंने वह दोहा जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया-
रहिमन वे नर मर गए जो कछु माँगन जाईं।
उनते पहिले वई मरे जिन मुख निकरति नाईं।
तब उसने मुझे और मेरे भाई को बुलाकर एक बड़ी ककड़ी दे दी। शिक्षा का महत्व समझ में आ गया था।
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