Saturday, August 10, 2019

जीत की गुंजाइश।


अभी अभी हरिशंकर परसाई जी का चुनाव का एक व्यंग पढ़ा। सोचा कुछ नकल से और कुछ अकल लगाकर लगे हाथ अपन भी कुछ पोंक मारते हैं। वैसे भी आज शनीचर है सो समय काटना भारी पड़ रहा है क्योंकि सो सो कर समय बिताने वाले को ही शनीचर कहते हैं, अब समझ में आया अम्मा क्यों कहती थीं 'शनीचर कहीं का'। दूसरा धारा के विपरीत कुछ लिख नहीं सकता, क्यों उस खटराज में पड़ें। फ़िक्र के लिए जिओ के डाटा की फ़िक्र ही काफ़ी है।

अबकी चुनाव लड़ने का मन बना लिया है, शुरुआत गाँव से ही होगी। मुद्दा भी है अपने पास, पहला, मेरा नाम राशन कार्ड से कट गया है, जिन्होंने राशन से नाम कटवाया उन्होंने ग़लती कर दी वोटर लिस्ट से नाम कटवाना भूल गए। यही भूल उनके लिए त्रिशूल का काम करेगी। दूसरा, हमारे घर के पास सरकारी नल भी नहीं है, इसलिए टोंटी चोर का इल्जाम भी हम पर नहीं है। वैसे हमारे देश की राजनीति में जैसे मुद्दे बहुत हैं, वैसे ही मुद्दई भी बहुत हैं। सो एक मुद्दई और बढ़ जाएगा। क्या फ़र्क़ पड़ता है। फर्क के लिए जिओ काफी है।

हमारे मोहल्ले से पिछली बार भूधर लड़े थे, कबकी बार मुनकाई लड़ेंगें और पिछली बार जिनकी अम्मा लड़ी थीं अबकी बार उनके बच्चों की अम्मा लड़ेंगीं। जाति की जटिलता हमारे यहाँ भी है। हर परिवार में शकुनी जैसे लोग यहाँ भी दाँवपेंच चलते हैं। पिछले चुनाव परिवार को लड़वाकर, तुड़वाकर जीते गए। वैसे मुहल्ले का चुनाव जीतने के लिए न ख़ास लोग चाहिए न आमजन। मुझे केवल फिक्र है भौजी, चाची, अम्मा, दादी, बिटिया और भतीजी के वोटों की वो मुझे मिल ही जाएँगे, क्योंकि आजकल लड़के और आदमी किसी की फिक्र नहीं करते उन्हें जिओ के डाटा की ही फिक्र है।

यदि इन सभी संभावनाओं पर गौर करें तो अबकी चुनाव में मेरा दाँव पक्का लगता है। वैसे भी शिशुपाल को रोकने के लिए कृष्ण की ज़रूरत है और यदि एक बार को मान लिया जाए यदि कृष्ण आ भी जाते हैं तो भी निन्यानबे का चक्कर अब नहीं चलने वाला और वैसे भी अब लोग शिशुपाल को वोट देते हैं कृष्ण को नहीं। जीत की गुंजाइश में फूलकर कुप्पा हो गया हूँ।

No comments:

Popular Posts

Modern ideology

I can confidently say that religion has never been an issue in our village. Over the past 10 years, however, there have been a few changes...