शुरू करने से पहले ख़ुमार बाराबंकवी की एक शेर याद आती है:-
मौत आए तो दिन फिरें शायद,
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है।
पिछली बार जब गाँव की स्टेशन पर बालामऊ जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था तब उन्हें देखा, गाल धंसे हुए, चेहरे पर हल्की हल्की छुर्रिया, आंखों के नीचे और गाल पर कई जगह काले काले धब्बे दिखाई दे रहे थे। उन्होंने पीले रंग की एक पुरानी टी-शर्ट और लुंगी बांध रखी थी। पिताजी को देखकर राम राम हुई, इससे पहले वे मुझे पहचानते मैंने तपाक से कहा राम राम चच्चा। वे मुस्करा दिए। बोले अरे भइया शिशुपाल बहुत दिनों बाद दिखाई दिए कहाँ रहते हैं। मैंने उन्हें अपना हाल चाल कह सुनाया। बड़े खुश हुए। आशीर्वाद दिया, दुवाएं दीं। मैं उनसे बात करने को उत्सुक था। उन्होनें जल्दी जल्दी सब अपना हाल कह सुनाया। बेटा और बहू दिल्ली में रहते हैं और दोनों नौकरी करते हैं। पोता उनके पास रहकर गांव में पढ़ाई करता है। एक एक बात कह सुनाई। बेटा बहू दोनों कमाते हैं लेकिन कभी एक पाई नहीं देते। लेकिन फिर भी वे ख़ुश थे कि चलो अपना गुजारा तो करते हैं। बड़ा भावुक कर देने वाला दृश्य था, कसम से बड़ा दुख हुआ। बड़ी माशूमियत थी उनकी बातों में और भी बहुत कुछ बताना चाह रहे थे, लेकिन ट्रेन के हॉर्न ने कहानी को विराम दे दिया। इसलिए उठकर चल दिए। जाते समय मैंने 100 रुपये पिताजी को और 100 चच्चा को देना चाहा, मना करते रहे, मैंने लाख समझाया, लेकिन नहीं मान रहे थे बड़ी मुश्किल से पिताजी के कहने पर लिए। अपने बेटे को विदा करते समय उनकी आंखों में आँसू थे। इधर पिताजी से विदाई के समय मैं मेरा भी यही हाल था।
जवानी में उनको देखा था, क्या शरीर था! गोरा रंग, लंबाई लगभग लगभग 5.5 फ़ीट, छरहरा शरीर। शौखिया पहलवानी करते थे, एक बार गुड़िया डालने गया था (बहन न होने के कारण गुड़िया डालने की जिम्मेदारी मेरी थी) तब उनकी कुश्ती देखी थी। एक बार मंसा बाग के पास दंगल में तो उन्होंने अच्छे अच्छों को चित कर दिया था। वे बहुत मेहनती थे, खुश मिज़ाज इतने कि बच्चों और बूढ़ों सभी से मज़ाक कर लिया करते थे। बचपन में मुझे टुनटुनिया (मेरी माँ ने करधनी में एक घुंघरू बांध दी थी जब मैं चलता था तो जोर जोर से बजती थी) कहकर बुलाते थे। ऐसे गबरू जवान कि मेजर या कर्नल की वर्दी पहन लें कोई पहचान न पाए कि ये तो वे चच्चा हैं या कोई और। उनकी जाति और नाम बताकर यहाँ सार्वजनिक करना अच्छा नहीं, पाठकों को इससे जागरूकता बनी रहती है। उन्होंने पूरी जिंदगी मज़दूरी, और दूसरों की हलवाही की। पिताजे ने बताया अच्छी ख़ुराख की वजह से उन्हें हलवाई करना या मजदूरी करना पसंद था जबकि वे एक अच्छे किसान हो सकते थे, लेकिन जिसके पास अपनी जमीन नहीं है उसके लिए मजदूरी ही बेहतर विकल्प है। ऐसा पिताजी का विचार है। मैंने मन ही मन सोचा कि मेरे बारे में भी यही बात लागू होती है।
ट्रेन पर चढ़ने के दौरान मैंने कह दिया चच्चा जवानी में आपको देखा था अब तो आप बहुत कमजोर दिखने लगे हैं, वे हल्की मुस्कराहट से बोले अब ज़िंदगी बची ही कितनी है भैया। ट्रेन ने हॉर्न दे दिया मैं और उनका बेटा एक ही डिब्बे में बैठे थे। वे मेरे पिताजी के पास खड़े थे मैं हम सभी एक दूसरे को जब तक देखते रहे जब तक दिखाई देते रहे। बाद में उनके बेटे से कोई बातचीत ही नहीं हुई, बेटा बहू आधी गांव की आधी शहरी भाषा में बात करने में मशगूल हो गए और मैं मिर्जागंज में बने सई नदी का इंतजार करने लगा।
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