Thursday, August 27, 2009

ओह! किस्मत के मारे! 'शिशु' बेचारे!

दिन हो या रात की नीवरता
सपनो भरी रात हो
या सुनहरी, ताज़गी भरी प्रात हो
मेरे समूचे वजूद में बस एक ही चीज होती है
ओह! किस्मत के मारे!
'शिशु' बेचारे!
दिल के अन्दर और बाहर बस यही आवाज़ होती है
जबसे अफवाह हकीकत में बदल गयी
अब नौकरी चली गयी
विवशता तब और बढ़ जाती है
जब मेरी शारीरिक दुर्बलता नज़र आती है
अब क्या होगा!
लोग कहते हैं की दिल्ली में हजारों नौजवान
जो बीए और एम हैं, रिक्शा चला रहे हैं
वो ताकत कंहा से लाऊंगा
यह सोचकर हिसाब लगता हूँ
कि मैं गाँव चला जाऊँगा
लेकिन गाँव में क्या बताऊंगा
कि यही अगले महीने से काम नही होगा
और जाहिर सी बात है तब पास दाम भी नही होगा
अब समझ आ गया सरकारी नौकरी के लिए
इतनी हाय-तोबा क्यूँ है
कम से कम दाल रोटी खाते हुए
परिवार के जिम्मेदारियों को
भली भांति निपटाया जा सकता है
और यदि आदमी भ्रष्ट है तो
और भी अच्छा,
भ्रष्टाचार से अच्छा-खासा पैसा भी
बनाया जा सकता है
लेकिन मैंने आजतक हिम्मत नही हारी
इसीलिये छोड़ दी कई नौकरी सरकारी
कई दोंस्तों से बात चल रही है
कुछ न कुछ हो जाएगा
अब ठान लिया है 'शिशु' ने
कुछ न कुछ करके दिखलायेगा

1 comment:

Vinay said...

उत्तेजनात्मक
---
तख़लीक़-ए-नज़र

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