भारत में महिलाओं को लैंगिक रूप से कमजोर समझा जाता है। इसका सीधा सा अर्थ है महिला पुरूष के बराबर काम नहीं कर सकती। उनके पास पुरूषों जैसी आजादी और उतने सामाजिक अधिकार भी नहीं है। इसके लिए वे निरंतर संघर्ष कर रही हैं और इसमें कुछ हद उन्हें कामयाबी भी मिली है। लेकिन मैं यहां पर एक आम महिला की बात न करके विकलांग बालिकाओं और महिलाओं पर लिखने की कोशिश करूंगा।
एक सर्वे से पता चलता है कि भारत में 5 करोड़ विकलांग हैं। जिनमें तक़रीबन 2 करोड़ की संख्या विकलांग महिलाओं की है। जिस समाज में लड़कियां पैदा होना ही अपशगुन माना जाता हो यदि उसी समाज में एक विकलांग बालिका का जन्म हो तो समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण क्या होगा इसकी कल्पना करना आसान ही होगा। जिन परिवारों में विकलांग लड़कियों का जन्म होता है उनके ज्यादातर परिवार में कुंठा और निराशा छायी रहती है। उन्हे यही चिंता रहती है कि इस लड़की का क्या होगा। उसका विवाह किस प्रकार होगा, आगे का जीवन वह कैसे काटेगी, किसके सहारे जियेगी। इसी प्रकार और भी बहुत सारे सवालों का जवाब ऐसे परिवारों के पास नहीं होता.
ऐसी विकलांग बालिकाओं की शिक्षा के प्रति परिवार का नजरिया बहुत संकीर्ण होता है। ज्यादातर परिवारों की आपस की राय यही होती है कि उसका पढ़ना-लिखना बेकार है। क्योंकि इन लड़कियों को रोजगार तो मिलने से रहा। ऐसा माना जाता है कि ये परिवार उनकी पढ़ाई की ओर ध्यान न देकर उनकी शादी की चिंता में रहते हैं वे सोचते हैं कि जितना खर्च हम इसकी पढ़ाई पर करेंगे उतना पैसा उसकी शादी में दहेज देकर उसका विवाह किया जा सकता है।
सामाजिक समारोंहों में भी इन विकलांग लड़कियों को नहीं ले जाया जाता। इस बारे में उनकी सोच होती है कि यदि उसे शादी में ले जायेंगे तो परिवार की बदनामी होगी और लड़की के साथ लोग दुव्र्यवहार करेंगे। जिसके कारण इन लड़कियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वे चिड़चिड़ी हो जाती हैं, उनके व्यवहार में रूखापन आ जाता है।
आज आम महिलाएं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वे नौकरी-पेशा में हैं, खुद पर निर्भर हैं। यहां तक कि पुरूषों के समान वेतन पर काम कर रही हैं और अच्छें पदों पर भी हैं। वहीं एक विकलांग महिला परिवार के किसी न किसी सदस्य पर निर्भर रहती है। उसे आम जरूरत तक के सामान के लिए परिवार और रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। विकलांग महिलाओं के बारे में आम धारणा यह बनी हुई है कि वह बाहर जाकर काम करने में असमर्थ है। उनकी दलील होती है कि दिल्ली जैसे शहरों में जहां भीड़-भाड़ वाली गलियां हैं, जरूरत से ज्यादा भरी हुई बसे हैं और गुस्सैल बस कंडक्टर हैं। ऐसी जगहों पर आम आदमी भी यात्रा करने से पहले एक बार सोचता है। इन जगहों पर इन विकलांग महिलाओं और बालिकाओं के लिए यात्रा करना कितना कठिन और खतरनाक है। इन सबके बावजूद भी विकलांग महिलाएं यदि काम के लिए निकलती हैं तो उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती। समाज इस बारे में उनके साथ भेद-भाव वाला रवैया अपनाता है।
इन विकलांग लड़कियों के परिवारों को उनकी शादी के लिए और भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। समाज की यह सोच है कि एक विकलांग महिला की शादी भी विकलांग पुरूष से होनी चाहिए ताकि वह उसकी भावनाओं की कद्र कर सके, उसकी देखभाल कर सके। यदि किसी विकलांग महिला की शादी आम पुरूष के साथ होती है तो परिवार को बहुत सारा दहेज देना पड़ता है। इसके बाद भी पति और उसके परिवार को यह आशंका बनी रहती है कि वह अपने बच्चे को संभाल पायेगी कि नहीं। इसीलिए इन विकलांग महिलाओं की शादी या तो किसी शादी-शुदा इंसान या किसी बृढ़े इंसान के के साथ कर दी जाती है।
इन सब चीजों के अलावा समाज और परिवार का नजरिया भी उनके प्रति ठीक नहीं होता। परिवार या रिश्तेदारों के ऊपर निर्भर रहने के कारण उनके साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। ताने कसना, अपमानित करना और जलील करना तो आम बात है। यहां तक कि उनके साथ ऐसे दुव्र्यवहार किये जाते हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं जैसे उपेक्षा करना, गाली-गलौच करना, शारीरिक प्रताड़ना देना आदि।
इन विकलांग महिलाओं और लड़कियों कि स्थिति में बदलाव लेन के लिए सरकार और बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं काफी प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज को भी एक जिम्मेदराना व्यवहार अपनाना होगा। जब तक समाज और परिवार उनके जीवन स्तर को सुधारने के लिए एक जिम्मेदाराना और व्यवहारिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता तब तक यह कहना कि उनके जीवन में बदलाव आयेगा कहना कठिन है।
आज जरूरत है इन विकलांग महिलाओं की पहचान करके उनके लिए जरूरी संसाधन जुटाये जायें। उनको रोजगार और स्वरोजगार दोनों तरह का सहयोग दिया जाये। उन्हें सिलाई-कढ़ाई के अलावा आधुनिक तकनीका का ज्ञान भी दिलाया जाये। इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे और भी काम हैं जिन्हें बैठकर किया जा सकता है जैसे पत्रकारिता, ग्राफिक्स डिजाइंन, आफिस मैनेजमेंट, अध्यापन और सलाहकार आदि में भी उनको शिक्षित किया जाये। इसके बाद हम देखेंगे जैसे ही समाज का नजरिया बदलेगा वैसे ही उनके जीवन में बदलाव आयेगा और वह समाज का एक हिस्सा बनकर आम नागरिक की तरह जीवन यापन कर सकेंगी!
1 comment:
हमारे समाज को न केवल विकलांग महिलाओं बल्कि सभी विकलांगों के प्रति अपना नजरिया बदलने की आवश्यकता है । आमतौर पर कोई भी यातायात का साधन, सड़कें, फुटपाथ,सीढ़ियाँ आदि यह सोचकर नहीं बनाए जातीं कि विकलांग भी इन्हें उपयोग करेंगे । सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वे आत्मनिर्भर बनकर सुरक्षित महसूस करते हुए समाज में अपनी भूमिका निभा सकें ।
घुघूती बासूती
Post a Comment