हमारे देश में कसम खाने और कसम खिलाने की परम्परा प्राचीन काल से चलती आ रही है। ऐसा माना जाता है कि राजा हरिश्चंद्र ने अपनी कसम पूरी करने के लिए पत्नी और बच्चे तक को एक मेहतर के हाथ बेंच दिया था। पुराणों में एक कथा है कि अयोध्या के राजा दशरथ की प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उनके पुत्रों ने 14 वर्ष तक का जंगल में बिताये, इस दौरान उन्हें वहां गंभीर परिस्थियों का सामना करना पड़ा। ऐसा कहते हैं कि उस समय कसम को पक्का वादा या सौगंध कहते थे और उस सौगंध को पूरा करने के लिए लोग अपनी जान तक की बाजी लगा देते थे। उनके लिए कसम तो एक प्रतिज्ञा होती थी।
आधुनिक युग में इसी को ध्यान में रखते हुए कसम अदालतों में अपराधी और गवाहों को खिलाई जाती है। जैसा कि सर्वसत्य है कि बदलाव प्रकृति का नियम है और इन्हीं बदलावों के फलस्वरूप इन कसमों की परिभाषा भी अब धीरे-धीरे बदलने लगी है। अब कसम को मजाक में लिया जाता है। यदि लड़का फिल्म देखकर आये और बाप पूछे कि बेटा कहां से आये हो। बेटा पहले ही बोल देगा ‘कसम से पापा मैं अपने दोस्त के घर से आ रहा हूं। बाप को भी पता है कि बेटा कसम खा गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दोस्त के घर से ही आ रहा है। बाप ने खुद भी तो अभी भाग्यवान (पत्नी) के सामने कसम खाई है कि वह ऑफिस से टाइम से निकले थे लेकिन रास्ते में ट्राफिक मिल गिया इसलिए लेट हो गये।
ऐसा मन जाता है कि पहले कसमों का कोई उतार नहीं था। शायद इसलिए लोग अपनी कसमों पर अडिग रहते थे। पुराणों, ग्रंथों के जानकार बताते हैं कि पहले का युग धर्म-कर्म का युग था। लेकिन अभी के युग का क्या? मैं पूछता हूं क्या आज का युग धार्मिक नहीं है? आज तो और अधिक मंहगे मंदिरों का निर्माण हो रहा है और इतना ही नहीं इन मंदिरों में भक्त जनों की लम्बी-लम्बी कतारें भी देखी जा सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं। आज के युवा शायद अब कसम पर उतना ध्यान नहीं देते। वैज्ञानिक युग जो है।
ऐसा नहीं कसमें अब खायी नहीं जातीं, कसमें अब भी खायी जाती हैं फर्क बस इतना है उन कसमों के आगे झूठ लग गया है। अब कसमें झूठी खायी जाती हैं। आज का प्रेमी ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो अपनी प्रेमिका का सामने कसमें न खाये। और वो कसमें भी ऐसी वैसी नहीं, वो कसमों खायी जाती हैं साथ जीने और मरने की। प्रेमिकाएं भी अपने पूर्व प्रेमियों की कसमें खाकर कसमें खाती हैं। भारतीय अदालतों का तो कहना ही क्या? आदमी गीता पर हाथ रखकर कसम खाता है और अदालत से निकलकर सीधे मंदिर जाकर कसम उतार आता है। या ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि पंडित जी को कुछ पैसा-टका देकर टटका-टोना करा दिया। बस। मामला खतम। भारत के राजनेता तो इसलिए कसम खाते ही नहीं वो तो वायदे करते हैं और वायदे तो वायदे हैं उन्हें तो आसानी से तोड़ा जा सकता है।
यदि कसम खाने और तोड़ने की गिनती की जाये तो पता चलेगा कि पचासों हजार कसमें रोज खायी जाती हैं और उतनी की संख्या में तोड़ी भी जाती हैं। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तो भाषा की कसम बन गयी है। इन जिलों में तो बाकायदा कसम में ही बात होती है। ‘तेरी कसम यार मैं अभी-अभी खाना खाकर आ रहा हूं’, तेरी कसम यार आज मैंने ऐसी लड़की देखी जिसके दो-दो ब्यायफ्रैंड, तेरी कसम यार मैं आज मरते-मरते बचा। अब उसे कौन याद दिलाये कि बच्चे अपनी कसम खा दूसरे की क्यों खाता है लेकिन दूसरे का भी तो वही हाल है वो कहता है तेरी कसम यार मैं तेरे पैसे कल तक जरूर दे दूंगा। तेरी कसम।
आप पूछेंगे कि यह क्या ऊट-पटांग लिखता रहता है तो मेरा भी जवाब यही होगा तेरी कसम यार अगली बार यह नहीं लिखूंगा।
आधुनिक युग में इसी को ध्यान में रखते हुए कसम अदालतों में अपराधी और गवाहों को खिलाई जाती है। जैसा कि सर्वसत्य है कि बदलाव प्रकृति का नियम है और इन्हीं बदलावों के फलस्वरूप इन कसमों की परिभाषा भी अब धीरे-धीरे बदलने लगी है। अब कसम को मजाक में लिया जाता है। यदि लड़का फिल्म देखकर आये और बाप पूछे कि बेटा कहां से आये हो। बेटा पहले ही बोल देगा ‘कसम से पापा मैं अपने दोस्त के घर से आ रहा हूं। बाप को भी पता है कि बेटा कसम खा गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दोस्त के घर से ही आ रहा है। बाप ने खुद भी तो अभी भाग्यवान (पत्नी) के सामने कसम खाई है कि वह ऑफिस से टाइम से निकले थे लेकिन रास्ते में ट्राफिक मिल गिया इसलिए लेट हो गये।
ऐसा मन जाता है कि पहले कसमों का कोई उतार नहीं था। शायद इसलिए लोग अपनी कसमों पर अडिग रहते थे। पुराणों, ग्रंथों के जानकार बताते हैं कि पहले का युग धर्म-कर्म का युग था। लेकिन अभी के युग का क्या? मैं पूछता हूं क्या आज का युग धार्मिक नहीं है? आज तो और अधिक मंहगे मंदिरों का निर्माण हो रहा है और इतना ही नहीं इन मंदिरों में भक्त जनों की लम्बी-लम्बी कतारें भी देखी जा सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं। आज के युवा शायद अब कसम पर उतना ध्यान नहीं देते। वैज्ञानिक युग जो है।
ऐसा नहीं कसमें अब खायी नहीं जातीं, कसमें अब भी खायी जाती हैं फर्क बस इतना है उन कसमों के आगे झूठ लग गया है। अब कसमें झूठी खायी जाती हैं। आज का प्रेमी ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो अपनी प्रेमिका का सामने कसमें न खाये। और वो कसमें भी ऐसी वैसी नहीं, वो कसमों खायी जाती हैं साथ जीने और मरने की। प्रेमिकाएं भी अपने पूर्व प्रेमियों की कसमें खाकर कसमें खाती हैं। भारतीय अदालतों का तो कहना ही क्या? आदमी गीता पर हाथ रखकर कसम खाता है और अदालत से निकलकर सीधे मंदिर जाकर कसम उतार आता है। या ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि पंडित जी को कुछ पैसा-टका देकर टटका-टोना करा दिया। बस। मामला खतम। भारत के राजनेता तो इसलिए कसम खाते ही नहीं वो तो वायदे करते हैं और वायदे तो वायदे हैं उन्हें तो आसानी से तोड़ा जा सकता है।
यदि कसम खाने और तोड़ने की गिनती की जाये तो पता चलेगा कि पचासों हजार कसमें रोज खायी जाती हैं और उतनी की संख्या में तोड़ी भी जाती हैं। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तो भाषा की कसम बन गयी है। इन जिलों में तो बाकायदा कसम में ही बात होती है। ‘तेरी कसम यार मैं अभी-अभी खाना खाकर आ रहा हूं’, तेरी कसम यार आज मैंने ऐसी लड़की देखी जिसके दो-दो ब्यायफ्रैंड, तेरी कसम यार मैं आज मरते-मरते बचा। अब उसे कौन याद दिलाये कि बच्चे अपनी कसम खा दूसरे की क्यों खाता है लेकिन दूसरे का भी तो वही हाल है वो कहता है तेरी कसम यार मैं तेरे पैसे कल तक जरूर दे दूंगा। तेरी कसम।
आप पूछेंगे कि यह क्या ऊट-पटांग लिखता रहता है तो मेरा भी जवाब यही होगा तेरी कसम यार अगली बार यह नहीं लिखूंगा।
2 comments:
बहुत सही बात लिखी है ....खैर तो आपके कसम से यह इंतजार कर सकती हूं कि आप फिर से ऐसे आलेख अवश्य लिखेंगे.... धन्यवाद।
प्रिय संगीता जी
दिवाली की बहुत बहुत शुभ कामनाएं !
आपके मेल से मुझे लिखने की जो प्रेरणा मिली है उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद्.
आपका शुभेक्शु
शिशु
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