गरीबी हिसां का एक बद्तर रूप है। - महात्मा गांधी
सिक्के के दो पहले होते हैं यह सभी जानते हैं और मानते भी हैं लेकिन उस समय क्या कहेंगे जब तीन चीजें सामने आ जायें जैसे गरीब, गरीबी और गंदगी। ये तीनों एक दूसरे के न होकर एक तीसरे के पूरक हैं। ऐसा माना जाता है कि गरीब से गरीबी बनी और गरीबी से गंदगी। और कहेंगे भी क्यों नहीं क्योकिं उनका वाह्य आवरण और उनके रहने-सहने के तरीके से ऐसा ही तो लगता है!
शहर वाले मानते हैं कि गंदगी गांव से आयी है। मतलब गांव से गरीब आये और और गंदगी साथ लाये। इसलिए शहरी गरीब को गांव की गरीब की तुलना में ज्यादा गंदा माना गया है। शहरी गरीबों के गंदगी में रहने के कारणों पर बहुत ही कम लोग चर्चा करते हैं। और जो लोग चर्चा करते भी हैं वो गंदगी के कारणों पर न करके उसके उपायों पर करते हैं।
मुद्दा यह है कि गरीब को ही क्यों गंदा कहा जाता है जबकि शहरों का ज्यादातर कूड़-कचरा बीनने वाले ये बेचारे शहरी गरीब ही तो होते हैं। ऑफिसों में काम करने वालों से लेकर घर में काम करने वाले ये सभी शहरी गरीब ही तो हैं। इधर ऑफिसों में आदमी साफ-सफाई का काम करते हैं उधर बड़ी-बड़ी कॉलोनियों के घरों के उनकी औरतें सफाई का काम करती हैं। यहां तक कि उनके बच्चे भी इसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए कूड़ा-कचरा बीनते नजर आते हैं। बात यह है कि उनको हमारी और आपकी सफाई से मौका ही नहीं मिलता कि वो अपनी साफ-सफाई रख पायें। इसके अतिरिक्त सामाजिक उपेक्षा का कारण भी उनको साफ-सफाई रखने में बाधक है। समाज का नजरिया उनके प्रति नकारात्मक है। उनको पता है यदि हम साफ-सुथरे भी रहेंगे तो भी कहने वाले यहीं कहेंगे कि हम गंदे हैं। हमारे घर गंदे हैं। इसलिए उन्होंने अपने को अपने हाल पर छोड़ रखा है।
इन गंदी बस्तियों को साफ रखने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चला रखी हैं जैसेः एकीकृत कम लागत सफाई स्कीम (आई।एल.सी.एस.), शहरी स्थानीय निकाय, स्लम उन्मूलन बोर्ड, विकास प्राधिकरण, सुधार न्यास, जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड इत्यादि।
कुछ राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय विकास एजेंसियां भी इन शहरी बस्तियों में साफ-सफाई के लिए काम कर रही है। बहुत सी छोटी-छोटी बस्ती आधारित संस्थाएं भी साफ-सफाई के लिए काम करती नजर आती हैं।
इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में विभिन्न योजनाओं चला रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने स्लम सेनिटेशन प्रोग्राम नामक स्कीम चला रखी है जो मुम्बई की स्लम बस्तियों में शीवर और सफाई का काम देखती है। सफाई व्यवस्था में दिल्ली सरकार का एक अपना तरीका है वह यह देखती है कि जिस स्लम में ज्यादा गंदगी होती है उस स्लम बस्ती को ही साफ कर देती है। पिछले साल उसने दिल्ली की खूब सफाई की। उसका तो मानना है ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’। इन सभी योजनाओं के चलने के बाद भी बात कुछ बनती नजर नहीं आ रही है। दिल्ली सरकार तो दिल्ली को रानी बनाने पर तुली है।
बहरलाह हकीकत से दूर भागते इस सारे परिवेश में जो बात मुझे नजर आ रही है वह यह है कि इन शहरी गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना। यदि उन्हें सही तरह का रोजगार मिले तो यह निश्चित है उनके रहन-सहन के स्तर में भी बदलाव आयेगा। इसके अतिरिक्त उनकी प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर जनस्वास्थ्य के प्रति लोेगों में जागृति पैदा की जाए, सभी लोगों को साफ पीने का पानी तथा भर पेट भोजन उपलब्ध कराया जाए, उन्हें गांव में ही समुचित रोजगार दिए जाएं। ताकि शहरों की तरफ पलायन रूके। समाज का नजरिया भी उनके प्रति बदलेगा। वो अपने बच्चों को पढ़ा सकेंगे और पढ़े-लिखे बच्चे आगे से आगे विकास में सहभागिता निभायेगें तथा अपनी बस्ती और अपने घरों को स्वच्छ रखने में अपने परिवार की मदद कर पायेंगे।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा
साफ़ - सफाई सबको प्यारी,
हमको प्यारी, तुमको प्यारी।
लेकिन एक मजबूरी मेरी,
मिलती नही मजूरी पूरी।
घर-परिवार करे मजदूरी
अभी बात है यहीं अधूरी
बेटा, बेटी कूड़ बीने,
तब जाकर होता है खाना
पानी बस हम पी लेते हैं,
हफ्तों होता नहीं नहाना।
साफ-सफाई का ये नारा,
लगता सबको ही है प्यारा
मैं भी कोशिश करता हूं कुछ,
कुछ करदे सरकार हमारा।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा -----
सिक्के के दो पहले होते हैं यह सभी जानते हैं और मानते भी हैं लेकिन उस समय क्या कहेंगे जब तीन चीजें सामने आ जायें जैसे गरीब, गरीबी और गंदगी। ये तीनों एक दूसरे के न होकर एक तीसरे के पूरक हैं। ऐसा माना जाता है कि गरीब से गरीबी बनी और गरीबी से गंदगी। और कहेंगे भी क्यों नहीं क्योकिं उनका वाह्य आवरण और उनके रहने-सहने के तरीके से ऐसा ही तो लगता है!
शहर वाले मानते हैं कि गंदगी गांव से आयी है। मतलब गांव से गरीब आये और और गंदगी साथ लाये। इसलिए शहरी गरीब को गांव की गरीब की तुलना में ज्यादा गंदा माना गया है। शहरी गरीबों के गंदगी में रहने के कारणों पर बहुत ही कम लोग चर्चा करते हैं। और जो लोग चर्चा करते भी हैं वो गंदगी के कारणों पर न करके उसके उपायों पर करते हैं।
मुद्दा यह है कि गरीब को ही क्यों गंदा कहा जाता है जबकि शहरों का ज्यादातर कूड़-कचरा बीनने वाले ये बेचारे शहरी गरीब ही तो होते हैं। ऑफिसों में काम करने वालों से लेकर घर में काम करने वाले ये सभी शहरी गरीब ही तो हैं। इधर ऑफिसों में आदमी साफ-सफाई का काम करते हैं उधर बड़ी-बड़ी कॉलोनियों के घरों के उनकी औरतें सफाई का काम करती हैं। यहां तक कि उनके बच्चे भी इसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए कूड़ा-कचरा बीनते नजर आते हैं। बात यह है कि उनको हमारी और आपकी सफाई से मौका ही नहीं मिलता कि वो अपनी साफ-सफाई रख पायें। इसके अतिरिक्त सामाजिक उपेक्षा का कारण भी उनको साफ-सफाई रखने में बाधक है। समाज का नजरिया उनके प्रति नकारात्मक है। उनको पता है यदि हम साफ-सुथरे भी रहेंगे तो भी कहने वाले यहीं कहेंगे कि हम गंदे हैं। हमारे घर गंदे हैं। इसलिए उन्होंने अपने को अपने हाल पर छोड़ रखा है।
इन गंदी बस्तियों को साफ रखने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चला रखी हैं जैसेः एकीकृत कम लागत सफाई स्कीम (आई।एल.सी.एस.), शहरी स्थानीय निकाय, स्लम उन्मूलन बोर्ड, विकास प्राधिकरण, सुधार न्यास, जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड इत्यादि।
कुछ राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय विकास एजेंसियां भी इन शहरी बस्तियों में साफ-सफाई के लिए काम कर रही है। बहुत सी छोटी-छोटी बस्ती आधारित संस्थाएं भी साफ-सफाई के लिए काम करती नजर आती हैं।
इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में विभिन्न योजनाओं चला रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने स्लम सेनिटेशन प्रोग्राम नामक स्कीम चला रखी है जो मुम्बई की स्लम बस्तियों में शीवर और सफाई का काम देखती है। सफाई व्यवस्था में दिल्ली सरकार का एक अपना तरीका है वह यह देखती है कि जिस स्लम में ज्यादा गंदगी होती है उस स्लम बस्ती को ही साफ कर देती है। पिछले साल उसने दिल्ली की खूब सफाई की। उसका तो मानना है ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’। इन सभी योजनाओं के चलने के बाद भी बात कुछ बनती नजर नहीं आ रही है। दिल्ली सरकार तो दिल्ली को रानी बनाने पर तुली है।
बहरलाह हकीकत से दूर भागते इस सारे परिवेश में जो बात मुझे नजर आ रही है वह यह है कि इन शहरी गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना। यदि उन्हें सही तरह का रोजगार मिले तो यह निश्चित है उनके रहन-सहन के स्तर में भी बदलाव आयेगा। इसके अतिरिक्त उनकी प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर जनस्वास्थ्य के प्रति लोेगों में जागृति पैदा की जाए, सभी लोगों को साफ पीने का पानी तथा भर पेट भोजन उपलब्ध कराया जाए, उन्हें गांव में ही समुचित रोजगार दिए जाएं। ताकि शहरों की तरफ पलायन रूके। समाज का नजरिया भी उनके प्रति बदलेगा। वो अपने बच्चों को पढ़ा सकेंगे और पढ़े-लिखे बच्चे आगे से आगे विकास में सहभागिता निभायेगें तथा अपनी बस्ती और अपने घरों को स्वच्छ रखने में अपने परिवार की मदद कर पायेंगे।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा
साफ़ - सफाई सबको प्यारी,
हमको प्यारी, तुमको प्यारी।
लेकिन एक मजबूरी मेरी,
मिलती नही मजूरी पूरी।
घर-परिवार करे मजदूरी
अभी बात है यहीं अधूरी
बेटा, बेटी कूड़ बीने,
तब जाकर होता है खाना
पानी बस हम पी लेते हैं,
हफ्तों होता नहीं नहाना।
साफ-सफाई का ये नारा,
लगता सबको ही है प्यारा
मैं भी कोशिश करता हूं कुछ,
कुछ करदे सरकार हमारा।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा -----
2 comments:
Bhai shishupal
mujhe lagta hai ki your this posting has really shown that things are improving and ur skills are coming up in improved manner. Pahli posting se le kar abhi tak mein apki lekhan shaily mein jo nikhar and paripakwatta aayi hai, mein uska kayal ho gaya hu.
Dost likhte raho network banate raho kyunki kisi ne sahi kaha hai ki.....
LAGA RAH KINARE PAR KABHI TO LAHAR AAYEGI
ARRE AYEGI KAISE NAHI , NAHI AAYEGI TO KYA APNI.......
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