Tuesday, April 24, 2018

उससे ज़्यादा दुःखी आज हर नारी लगती है...

ऐसे आते हैं ख्यालात कि रातें भारी लगती हैं,
एक नहीं, दो-चार नहीं, कुल सारी लगती हैं।

सबका बोझ उठाये क्यों हैं घूम रहे भगवान!
पंडित जी बोले ये उनकी जिम्मेदारी लगती है।

शोषित, पीड़ित और कमेरों की हालत बेकार,
उससे ज़्यादा दुःखी आज हर नारी लगती है।

हाक़िम बदले और बदल गए हुक्म चलाने वाले,
मगर गरीबों से तो लूट आज भी जारी लगती है।

हिन्दुस्तान के टुकड़े होने को सदियाँ हैं बीत रहीं,
हिन्दू-मुस्लिम में पर जंग आज भी जारी लगती है।

जाति-व्यवस्था और धर्म पर जब भी करता चोट,
पोंगापंथी, धर्म के ठेकेठारों को ये गारी लगती है।

जब भी भाई-भाई में होते हैं कुछ झगड़े फ़साद,
सबसे ज़्यादा दुःखी घरों में तब महतारी लगती हैं।

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