Friday, March 29, 2019

सफ़रनामा, भाग-1

सफ़रनामा, भाग-1

जब मैं दिल्ली आया था, मयूर विहार फेस वन के पास चिल्ला गाँव मेरा ठिकाना था। गाँव देखकर कहना मुश्किल था कि हम दिल्ली में रहते हैं, सड़कों पर कीचड़ इतना ज्यादा की ऑफिस जाते समय पालिश किए जूते कीचड़ में सन जाते। साल के बारहों महीने सड़कों पर कीचड़। उस समय हमारा गाँव उस गाँव से लाख गुना बेहतर था।  फर्क था तो केवल मकानों का। वहाँ के मूल निवासियों की भाषा हमारी जैसी न थी। मकान मालिक गाय भैंस पालते थे। और बड़े बड़े मकानों में अनगिनित कमरे बनाकर किराए पर उठाते जिससे उनकी धुंआधार कमाई होती थी।  किरायेदार चूहों बिल्ली की तरह रहते थे। दस दस कमरों पर एक बाथरूम, टट्टी पेशाब के लिए लाइन लगानी पड़ती थी। मकान मालिक अपने लिए अलग साफ सुथरा बाथरूम बनाते और किराएदारों के लिए अलग जहाँ सही से रोशनी न आती। मुँह बांधकर बाथरूम जाना पड़ता था। कई बार जैसे ही अंदर जाता कोई कड़ी बजा देता। निकलो बाहर बड़ी जोर की लगी है लोग कहते। हम 3 लोग रहते थे। हमारा कमरा साफ सुथरा था, लेकिन बाथरूम के लिए नीची जाना पड़ता था, भगवान कसम बड़ी चिल्लमपो होती।

जैसे ही उस गाँव से हम बाहर निकलते हमें राहत मिलती, वहाँ चमचमाती सड़कें, सड़क किनारे फुटपाथ, छायादार पेड़ और ऊँची ऊँची इमारते देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता कि हम इसी आसपास के इलाके में रहते हैं।

वहीं समाचार अपार्टमेंट्स के पास मार्किट में मेरा ऑफिस था। जहाँ मैं कम्प्यूटर ऑपरेटर था। बड़े-बड़े पत्रकार, लेखक, आर्टिस्ट, फिल्मों में स्टोरी लिखने वाले, कलाकार, वहाँ आकर कम्प्यूटर पर काम करते थे, मेल लिखते, प्रिंट निकलते, अखबार  निकालते, पत्रिकाएँ  निकालते। हर कोई जल्दी में रहता। उम्र दराज़ लोग फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते। कई बार जब कोई ओल्ड लेडी अंग्रेजी में बात करती तो गाँव की दादी नानी की याद आ जाती। तुलनात्मक रूप से जमीन आसमान का अंतर। लोग विभागीय पत्र टाइप करवाने आते, ज़्यादातर रिटार्यड लोग अपनी पेंशन या बेटे को जो विदेश में रहता था के लिए पत्र मेल लिखवाते। व्यक्तिगत पत्र जिन्हें सार्वजनिक करना ठीक नहीं ऐसे पत्र लिखवाते। कोई कोई अपने बच्चों की याद में भावुक पत्र लिखवाते, हम टाइप करते करते   स्वयं  ही भावुक हो जाते।

हिंदी में लिखा पढ़ी कम ही होती। मैं हिंदी भाषी था, अंग्रेजी में हाथ तंग था, स्पेलिंग मिस्टेक कर देता। कड़ी डाँट फटकार मिलती। किसे हायर किया है, लोग अंग्रेजी में बुदबुदाते। मुझे कोसते, मुझसे काम करवाने से मना कर देते। बड़ी खीज़ होती, हताशा से मन विचलित हो जाता। एक बार एक रिटायर अंकल किसी कंपनी के लिए प्रोजेक्ट लिखवा रहे थे, वो बोल रहे थे मैं टाइप कर रहा था, गलती होने पर जो डाँट पिलाते, नानी याद आ जाते। एक बार तो इतना डाँटा कि बाथरूम में जाकर रोया आया।

वहाँ एक दीदी आती थीं जो एक नामी गिरामी सामाजिक संस्था में बड़े पोस्ट पर थीं। वो अक्सर बच्चों के लिए कहानी लिखवाती थीं। कई अखबारों में लेख और कॉलम लिखती थी। उनका ज़्यादातर काम हिंदी में होता था। मैं जब टाइप करता यदि कोई स्पेलिंग मिस्टेक होती स्वयं से सही कर देता। बड़ा मान देतीं। हमारे बॉस को बोल देतीं उसी बच्चे से ही करवाना। एक दिन बातों बातों में उन्होंने अपने ऑफिस में मुझे नौकरी की पेशकश कर दी। मुझे अजीब लगा, इससे पहले मैंने वहाँ से नौकरी बदलने का कभी सोचा नहीं था। क्यंकि वहाँ मुझे समय पर सैलरी मिलती और सीखने का वह सबसे बड़ा स्थान था। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मैंने वहाँ बहुत कुछ सीखा। सीखने के लिए इससे बेहतर और कोई जगह हो ही नहीं सकती। अगले दिन मैं बहाने से छुट्टी लेकर वहाँ गया और इंटरव्यू दिया। मैं सेलेक्ट हो चुका था और तनख्वाह पहले स्थान से दूनी थी। यहाँ से जिंदगी की शुरुआत हो चुकी थी।

शेष अगले भाग में-

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