Sunday, March 31, 2019

सफ़रनामा, भाग-2

मेरा पालन पोषण घोर गरीबी और अभाव में हुआ। मेरे माता-पिता छोटे काश्तकार होने के कारण इतनी कमाई नहीं कर सकते थे कि मैं ग्रेजुएशन की पढ़ाई किसी अच्छी यूनिवर्सिटीज में कर पाता। मेरा चयन लखनऊ विश्विद्यालय में बीए में हो गया था, लेकिन परिवार के ख़र्च न उठा पाने की वजह से मैंने अपना एडमिशन कानपुर विश्विद्यालय के एक बदनाम डिग्री कॉलेज में करवा लिया था। जो नकल के विख्यात था और जहाँ कम फीस थी। वहाँ रिगुलर क्लासेस करने की जरूरत नहीं थी। इसलिए मैं कमाने के उद्देश्य से मेरठ आ गया था।

दिल्ली जाने से पहले मैं मेरठ की पुरानी प्रेमपुरी की जिस गली में मैं रहता था, वहाँ ज़्यादातर लोग चाट मसाले का ठेला लगते थे। हालाँकि कुछ एक लड़के शराबी थे लेकिन उनके बुजुर्ग बड़े मेहनती थे। महिलाएँ पुरुषों से ज्यादा मेहनतीं थीं। वे घर का काम करने के बाद पूरे दिन गोल गप्पे बनाती थीं। हमारी गली गोल गप्पे वाली गली के नाम से मशहूर थी। मेरा कमरा पहली मंजिल पर था, जहाँ मकान मालकिन के लड़के ने कबूतरों के लिए एक दड़बा भी बना रखा था। यह काफी पुराना घर था और अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था। मेरी मकान मालकिन बहुत भली औरत थीं। मैं शारीरिक रूप से अक्षम था, इसलिए मुझ पर सब दया भाव दिखाते। किरायेदार होने के बावजूद भी मुझे वहाँ अपनापन लगता। जब घर की याद सताती तो आंटी से बात कर लेता। मेरे पड़ोसी जब कभी कुछ अच्छा बनाते तो मुझे खाने के लिएअवश्य देते। मुझे उस गली के सभी निवासी बहुत स्नेह देते। मैं उनके छोटे बच्चों को शाम को फ्री ट्यूशन पढ़ाता था। लोगों की आमदनी कम थी। लेकिन दिल बहुत बड़े थे। मैं कमरे में ताला नहीं लगाता था, कारण, एक तो मेरे पास कुछ कीमती सामान न था और दूसरे मुझे वहाँ रहने वालों पर पूर्ण भरोसा था।

मुझे सुबह जल्दी कम्प्यूटर क्लासेस के लिए जाना होता था। चार बजे उठकर अपनी पढ़ाई करता, रोटी बनाता, सब्जी कम ही बनाता था क्योंकि कोई न कोई मुझे दे ही देता। उस घर में कुल मिलाकर 12 लोग रहते थे। घर चार मंजिला था। मुझे प्रतिदिन की चाय वहाँ रहने वाली एक किराये पर रहने वाली आंटी देती थीं। उनके दो बच्चे थे, जो उम्र में बहुत छोटे थे, आंटी अंकल की मृत्यु के बाद पीडब्ल्यूडी में नौकरी करतीं थीं। बड़ी सीधी, मधुर बोलने वाली। वो पंडित थीं लेकिन जाति पाँति में विश्वास नहीं करती थीं।

मैं आने जाने के लिए साइकिल प्रयोग में लाता था। यह साइकिल एक चोर ने मुझे बेंच दी थी जिस पर उसने नीले और लाल रंग से पुलिश लिख दिया था ताकि कोई शक न कर सके। साइकिल बेंचने से पहले उसने मुझे बता दिया था कि यह साइकिल चोरी की है। मुझे चोर की ईमानदारी और उसकी होशियारी बहुत अच्छी लगी थी। बाद में उसने मुझे पैसे वापस कर दिए थे और हम दोस्त बन गए थे। चोर ने मेरे कहने के बाद चोरी छोड़कर साइकिल मिस्त्री की नौकरी कर ली थी। कुछ दिन बाद उसकी एक एक्सीडेंट में मौत हो गई। ऐसे ही अनेकों अच्चे बुरे लोगों से मेरा वास्ता पड़ा।

मेरी कप्यूटर सेंटर कचहरी रोड मोहनपुरी में था। वहाँ से 10 बजे छुट्टी होती। उसके बाद बेगमपुल के पास एक फोटोकॉपी और पीसीओ की दुकान में काम करता था, वहाँ एक कंप्यूटर भी था, जिस पर डीटीपी का काम किया जाता था, शादी कार्ड भी डिजाइन किए जाते थे। मुझे कम्प्यूटर की दुकान पर राजू भइया ने लगवाया था, उनका मेरी जिंदगी बदलने में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। वहाँ मुझे 600 रुपये तनख्वाह मिलती थी। कमरे का किराया 300 था, खाना ख़र्चा करने के बाद भी मैं कुछ पैसे बचा लेता था, जिन्हें जोड़कर मैं अपने गरीब माँ बाप को भेज देता था।

मेरा काम था दुकान खोलना, साफ सफाई, डस्टिंग करना, और जनरेटर के लिए तेल लाना, (उन दिनों मेरठ में बिजली बहुत जाती थी), फिर मैं पानी का जग भरकर रखता और दुकान पर आने वालों के लिए चाय लाता। सुबह से ही फोटोकॉपी वालों की लाइन लग जाती। मेरा मुख्य काम था पीसीओ पर फ़ोन करने वालों को फ़ोन उपलब्ध करना उनका नंबर नोट करना और हिसाब किताब रखना, इसके अलावा फोटोकॉपी सेट बनाना, बाद में फोटोकॉपी करने वाली लड़की नौकरी जब छोड़ गई तब यह काम भी मुझ पर आ गया। कभी कभी फोटोकॉपी मशीन पर दो दो घंटे खड़े रहना पड़ता था। एक पैर से कमजोर होने के बावजूद भी आराम न करता। दुकान के मालिक बहुत अच्छे इंसान थे, वह बैंक से रिटायर बैंक मैनेजर थे। फिर एक दिन अचानक कम्प्यूटर वाला लड़का नौकरी छोड़कर चला गया तब मुझे कम्प्यूटर पर काम करने का मौका मिला। वहाँ मैंने 2 साल काम किया और जब मैं दिल्ली आया तब मेरी सैलरी 2,500 रुपये थी। तब तक मेरा कम्प्यूटर का डिप्लोमा पूरा हो चुका था।

क्रमशः.... अगले भाग में राजू भैया के बारे में।

No comments:

Popular Posts

Modern ideology

I can confidently say that religion has never been an issue in our village. Over the past 10 years, however, there have been a few changes...