Thursday, January 28, 2010

पढिगे पूत कुम्हार के सोलह दूनी आठ,

पढिगे पूत कुम्हार के सोलह दूनी आठ,
घूमते बर्तन लेकर हाट,
जमाते गधे पे अपनी ठाठ.

बोलता मुझसे सुन दद्दा,
रात को मैं पीता अद्धा,
शहर में ख़ाक कमाते हो,
गाँव तो खाली आते हो,
मूछ ऊपर से घोट दई,
शर्म भी शहर में बेंच दई,
जब तक इंग्लिश ना लाओगे,
पढ़े तुम नहीं कहाओगे.

कहा तब मैंने सुन कल्लू
अबे तू तो पूरा लल्लू
बोल मैं इंग्लिश लेता हूँ
टैक्स सरकार को देता हूँ
मुझे कम्पूटर भी आता
बैंक में है मेरा खाता.

सुन कल्लू ये बोला बैन
तभी दिखते हो तुम बेचैन
मोह माया में तुम पड़ते
बात पर अपनी ही अड़ते
साथ में क्या कुछ जाएगा
कमाएगा क्या पायेगा

शहर में ब्याह रचाया हूँ 
पढी घर बीबी लाया हूँ
हमारे घर साजो सामान
समझ कल्लू तू कहना मान

सुना है सब मैंने भाई
शहर की बीबी जो आई
चाय तुमसे बनवायेगी
पार्टी में वो जायेगी

पढोगे कल्लू तभ ही कार
तुम्हारे घर पर आयेगी
पढ़ाई है असली सम्मान
तुम्हे ये भाई भायेगी
अभी गधहे पर बैठे हो
तभी तो गधे कहाते हो
काम करते ना कोई खाश
अधिक पैसे ना पाते हो

उसे समझाया घंटे चार
हो गए सारे सब बेकार
दुबारा मैं समझाऊंगा
द्वार कल्लू के जाऊंगा.

4 comments:

Unknown said...

Nice Poem!!

Rajeysha said...

पहली लाइन के अर्थ कुछ अलग से ही लगे, कुछ ज्‍यादा ही अर्थ वाले

Unknown said...

शिशु जी पहली लाइन के हिसाब से समापन नहीं हुआ इस कविता का इसे थोडा और अच्छी प्रगति के साथ अंत करने की कृपा करें.
धन्यवाद.

Unknown said...

शिशु जी पहली लाइन के हिसाब से समापन नहीं हुआ इस कविता का इसे थोडा और अच्छी प्रगति के साथ अंत करने की कृपा करें.
धन्यवाद.

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