प्रथम पंक्ति में आज खड़ी सब ग़द्दारों की टोली है,
देशभक्त को भूल गए ये जनता बिल्कुल भोली है।
थे ग़रीब पहले भी बेबस, अब भी हाल न अच्छा है,
भारत की इस राजनीति में नेता हुआ न सच्चा है।
असल स्वतंत्र तभी होंगें, जब सबका विकास होगा।
प्रजातंत्र में जब हर व्यक्ति आम नहीं ख़ास होगा।
जब हर कोई रोटी, कपड़ा, घऱ-मकान पा जाएगा।
तब सच्चे अर्थों में 'शिशु' लोकतंत्र आ जायेगा।।
Monday, December 18, 2017
प्रथम पंक्ति में आज खड़ी सब ग़द्दारों की टोली है
Saturday, November 11, 2017
याद सब गुरु'जी और पाठशाला रहें।
दादा रहें, दादी रहें, बनीं बूढ़ी खाला रहें!
पेंशन बरक़रार सबकी साठ'साला रहे।
कड़कड़ाती सर्द में हो तापने को आग़,
हाथ में अख़बार, चाय का प्याला रहे।
दोस्तों का साथ हो तब पुरानी याद में,
गप्पबाज़ी के लिए मौजूद म'साला रहे।
जो पढ़े थे साथ बचपन में, जहन में हैं,
उन सभी की ज़िन्दगानी में उजाला रहे।
जिस बदौलत हैं 'शिशु' इस मुक़ाम पर,
वो याद सब गुरु'जी और पाठशाला रहें।
Sunday, November 5, 2017
लाइन लगी कि लगी न लगी, नोट बदलने की है नहि आशा
नरोत्तम दास की प्रसिद्ध कविता 'सुदामा चरित्र' की लय पर आधारित है-
सीस पगा न झगा तन में,
प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा
लाइन लगी कि लगी न लगी, नोट बदलने की है नहि आशा।
लोग लगे वो लगे कहने चहुँओर है छायी घोर निराशा।
नोटबंद से ग़रीब-किसान का' घाटा हुआ है अच्छा-ख़ासा।
पुलिश बजावति लठ्ठ कि, कबहूँ बैंक के बाबू देति दिलाशा।
'मन की बात' रेडियो में कह चौकीदार ने सबको फाँसा।
मीठे-मीठे बोल बोलि 'शिशु' वित्त मंत्री भी देता झांसा।
और भक्त मंडली श्राप देति सबहीं जैसे देते दुरवासा।
काला धन है आया नही कुल बीत गए तीनों चौमासा।
Thursday, October 26, 2017
गदहे को पंजीरी बांट प्रभु, इंसान के आगे घास करो।।
विकास की कोई न आस करो,
हैं फ़ेल तो फ़िर भी पास करो।
सब भक्त बनो, गुणगान करो,
भगवान को यूं न निराश करो।।
सरकार को परमेश्वर माना-
तब आँख मूंद विश्वास करो।
गदहे को पंजीरी बांट प्रभु,
इंसान के आगे घास करो।।
सब बंद पुराने नोट करो,
यह अर्थव्यस्था नाश करो।
आलोचक को सूली दे दो,
लेकिन उनका न ह्रास करो।।
जनता पर कर्ज़ डाल भारी,
जीते जी सबको लाश करो।
है एक गुज़ारिश और 'शिशु'
जनता का न उपहास करो।
सब बंद पुराने नोट करो, यह अर्थव्यस्था नाश करो।
हैं फ़ेल तो फ़िर भी पास करो।
सब भक्त बनो, गुणगान करो,
भगवान को यूं न निराश करो।।
सरकार को परमेश्वर माना-
तब आँख मूंद विश्वास करो।
गदहे को पंजीरी बांट प्रभु,
इंसान के आगे घास करो।।
सब बंद पुराने नोट करो,
यह अर्थव्यस्था नाश करो।
आलोचक को सूली दे दो,
लेकिन उनका न ह्रास करो।।
जनता पर कर्ज़ डाल भारी,
जीते जी सबको लाश करो।
है एक गुज़ारिश और 'शिशु'
अपना तुम ना उपहास करो।
Sunday, October 8, 2017
नौटंकीबाज
नौटंकीबाज
मेरी बचपन की यादों में नौटंकी और ड्रामें की यादें बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। तो बात उन दिनों की है जब मैं कोई 5 या छठी में पढ़ता था। हमारा गांव सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाना जाता रहा है, कोई भी पारिवारिक या धार्मिक कार्यक्रम हुआ लोग फटाक से नौटंकी बाँध के आ जाते हैं। इसका प्रभाव कुछ यहां तक पड़ा कि गांव के लोगों भी बाद में नौटंकी का साजो-सामान रखना शुरू कर दिया।
खैर ये तो रही ये बात! अब सुनिये, मुझे नौटंकी देखने का इतना चस्का लगा कि गांव के आसपास की कोई नौटँकी बकाया नहीं रखी। होता यह था, जैसे ही नक्काड़ा कानों को सुनाई देता मन में बेचैनी शुरू हो जाती थी। वैसे ही जैसे कोई अनिंद्रा का बीमार, वो लाख सोने की कोशिश करे नींद नहीं आती। हमारा अपना एक गैंग था, जिसमें मेरा चचेरा भाई, मेरे मुहल्ले के कुछ बदमाश लौंडे तथा मेरे लंगोटिया यार भी शामिल थे। और हाँ! ये सब लौंडे वही थे, जिनके घरों में नौटंकी ड्रामा देखने पर कड़ा प्रतिबंध होता था। हम बैठने का सामान अपने घर से ले जाते और अक्सर सबसे आगे बैठते, जहाँ से नचनियों को परेशान किया जा सके, हम इशारों से उन्हें चिढ़ाते थे, उनका मज़ाक उड़ाते और उनकी नज़र में स्वयँ नौटंकीबाज हो जाते। नौटंकी के प्रबंधक हमारे पर विशेष ध्यान रखते। और बीच-बीच में चेतावनी देते कि यदि अगली बार कुछ हरक़त की तो हमें भगा दिया जाएगा, हालाँकि ये चेतावनी रात भर चलती रहती।
ऐसा नहीं था कि हम नौटंकी का मनोरंजन खेल या ड्रामा देख कर करते बल्कि, हमारा मनोरंजन तो नौटंकी देखने वाले दूसरे व्यक्ति और छोटे बड़े लौंडे होते, जिनके पीछे से टिप्प मारना, उनके कान में लकड़ी घुसेड़ना तथा मुंह बनाकर उनका मज़ाक उड़ाना से हमारा मुख्य मनोरंजन होता। जोकड़ और नचनिये का फूहड़ वार्तालाप हमारा मनोरंजन का मुख्य भाग होता।
इन नौटंकियों द्वारा मैंने कितने ही दोस्त बनाएं, जो आज भी हमारी यादों में हैं हालांकि उनसे अब मिलना मुश्किल है। मैंने बाद के वर्षों में नौटंकी को मनोरंजन से ज्यादा उसकी कहानी पर ग़ौर करना शुरू किया। और बाकायदा चौगोलों को याद करना भी शुरू कर दिया। आज भी न जाने कितने ही ज़बानी याद हैं, देखिये क्या ख़ूबसूरत चौगोला:-
"मोर मुकुट मांथे तिलक, भृकुटि अधिक विशाल
कानन में कुंडल बसे, देखो गल बैजंती माल,
गल बैजंती माल, हाँथ में लिए लकुटिया आला
ता ता थैया करत निरत संग गोपि ग्वालिनी ग्वाला।
मेरे ब्रज के रखवारे, हमारो करउ गुजारे
राखो लाज द्वारिकादीश, श्रीपति नंद दुलारे।।"
मुझे याद है पहली बार मैंने नौटँकी तकिया गांव में देखी थी, शायद मैं कोई 7 या आठ साल का रहा होऊंगा और आख़िरी बार मैंने कोई पाँच साल पहले देखी थी। आज मैं नौटंकी को फिर उन दोस्तों के साथ देखने का सपना देखता हूँ, पता नहीं ये सपना कब पूरा होगा।
लाइक और कमेंट
अन्ने बन्ने में इतनी ज़्यादा गाढ़ी दोस्ती थी, कि कहने वाले कहते थे खाना एक के घर बनता था तो चूल्हे का धुवाँ दूसरे के घर उड़ता था। गांव के मसखरे मज़ाक में कहते थे कि वो दोनों एक से ही हगते हैं। बन्ने अपने नाम के पीछे खान लगाते थे। अन्ने केवल अन्ने ही लिखते थे आगे-पीछे और कुछ नहीं! इसलिए, उन्हें न तो हिन्दू, न मुस्लिम और न ईसाई कह सकते हैं। वैसे गांव में ईसाई कोई था ही नहीं। दोनों दोस्त किस धर्म से हैं औ उनकी जाति क्या है ये न तो बन्ने ने अन्ने से और न अन्ने ने बन्ने से कभी पूछा। अन्ने, बन्ने के बारे में केवल ये जनता था कि वो अलग धर्म से हैं। लेकिन कभी कभी अन्ने को उनके पड़ोसी और ग़ैर दोस्त याद दिला देते थे कि बन्ने का धरम क्या है। पंडिताइन दादी ने अन्ने को एक रोज़ शाम को बताया कि बन्ने का बाप राज मिस्त्री था और क़स्बा से भैंसे का मांस लाता था, जिसके झोले को एक बार टिल्लू (पंडिताइन का बड़ा बेटा, जो अब दिल्ली में रहता है) ने गलती से छू लिया था जिसके बाद पंडिन ने उसकी कैसी मरम्मत की थी। ये सुनकर अन्ने इतनी जोर हँसे कि पंडित बाबा को लठ्ठ उठाकर उन्हें भगाना पड़ा था।
अब तक व्हाट्स और फेसबुक का चलन गांव में नहीं आया था। बावजूद इसके गांव में छुआछूत का चलन कम हो गया था, हाँ खानपान में कुछ हद तक मनाही थी, लेकिन गांव के पंडितों के लौंडे चोरी छुपे कलिया और मछरी जरूर खाने लगे थे। अब खटिया पर सिरहाने या पैताने बैठो कोई ख़ास मनाई नहीं थी, बस कोई बुजुर्ग आ जाये तो ठाढे हो जाइये। इतने पर भी गांव में सब ठीक ठाक ही था।
दोनों गांव की रामलीला और नौटंकी में साथ-साथ बैठते, और नाचनिये को दिए गए ईनाम को 'अन्ने के ना बन्ने के, रूपये हैं ये धन्नो के' नाम से बुलवाते। दोनों ग़रीब थे, दोनों पेट पालन के लिए खेती करते थे हालाँकि दोनों को मजूरी करना ज्यादा अच्छा लगता था। अन्ने और बन्ने अब अधेड़ हो रहे थे।
अन्ने और बन्ने के लड़के भी अपने बाप की ही तरह गहरे दोस्त थे। दोनों दसवीं में दो बार फेल हुए थे अब दिल्ली में कमाने की सोच रहे थे। दोनों ने 'माल' में नौकरी की जहाँ एक राशन की दुकान और दूसरा मोबाइल की दुकान में काम करते हैं। दोनों साथ रहते हैं कुछ दिनों तक दोनों ने अलग अलग खाना बनाया, फिर होटल में खाया, पहले अन्ने का लड़का खाता फिर बन्ने का, उनके बाद दोनों साथ साथ खाने लगे इसके कुछ दिनों बाद दोनों ने कमरे पर ही बनाना शुरू कर दिया।
आगे की कहानी फेसबुक और व्हाट्स ऐप के आने के बाद शुरू होती है। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत चुकी थी, जिसे चुनावी रणनीतिकार ऐतिहासिक जीत कहते हैं। दोनों लड़कों के पास स्मार्ट मोबाईल है और वे व्हाट्स फेसबुक पर हैं। इन पर धार्मिक से लेकर अश्लील मेसेज आते हैं दोनों एक दूसरे ले लिए लाइक और कंमेंट करते हैं। अभी कुछ दिनों से अन्ने और बन्ने के लड़कों को राजनीतिक, धार्मिक, देह प्रेम, आदि आदि मेसेज आने शुरू हो गए हैं । जिनमे लिखा होता है अधर्मी और देश द्रोही देश से गद्दारी कर रहे हैं और कभी कभी बीफ़ वीफ़ आदि वाले मेसेज भी आते हैं। हालांकि दोनों नॉनवेज खाते हैं पर बीफ नहीं। पर उन्हें सही में यह भी पता नहीं कि बीफ़ का मीट क्या होता है। अन्ने के लड़के और बन्ने के लड़के में अब बहसें शुरू होने लगीं थीं।
कुछ दिनों तक दोनों के बीच बहसों का दौर चलता रहा। बाद में ये माहौल तनाव भरा हो गया। अब दोनों लड़के एक साथ रहते जरूर पर वो बात नहीं थी। खाना फिर से होटल का हो गया। दशहरा नजदीक आ रहा था। गांव की रामलीला दोनों को गाँव की तरफ खींच रही थी। दोनों ने बिना बात किये एक दूसरे को अवगत कराया कि वो गांव जा रहे हैं। आनंद विहार से बस पकड़नी है 4 बजे वाली। ये उन दोनों की आख़िरी बातचीत थी।
लौंडे अपने अपने घर गए और सबसे पहले व्हाट्सअप और फेसबुक के किस्से घर पर सुनाये। धर्म अधर्म और देश भक्ति, सेना, विदेश, राजनीति, दिल्ली, केजरीवाल, मोदी उनके चर्चा के मुख्य बिंदु थे। घर में किसी को कुछ समझ नहीं रहा था । अन्ने ने बन्ने से पूछा ये सब क्या है बच्चे पैसे की जगह ये क्या कमाकर लौटे हैं। हमने 50 साल गुज़ारे एक दूसरे से आजतक कभी भी नमाज़ और पूजा पर चर्चा नहीं की। वास्तव में न बन्ने ने नमाज़ पढ़ी न अन्ने कभी मंदिर गए। बन्ने ने ईद में बम्बा पार नमाज जरूर अता की जबकि कार्तिक नहान में दोनों गंगा घाट गए मेला देखा और नहान किया।
अब अन्ने और बन्ने अक्सर कम ही मिलते हैं। गांव में अब लौंडे कांवर निकलने लगे हैं सुना है स्टेशन के पास वाली मस्जिद में भोंपू से अल्लाह अकबर का शोर भी होने लगा है। बन्ने मस्जिद में पांच वक्त की नमाज़ अता करते हैं और अन्ने मंदिर के लिए बन रहे चबूतरे पर दिहाड़ी कर रहे हैं। लोगों से सुना गया है मंदिर बनने के बाद अन्ने ही मंदिर के मुख्य कर्ता धर्ता होंगे।
लौंडे फिर से दिल्ली लौट आये हैं और अब दोनों अलग अलग रहते हैं। दोनों को एक दूसरे का पता नहीं पता।
सुनने में आया कि अन्ने बीमार हैं और बन्ने उन्हें देखने तक नहीं आये। बन्ने का भी कुछ यही हाल है। और इधर लौंडे लाइक और कमेंट पेले जा रहे हैं।
Wednesday, October 4, 2017
थानापति बाबा
हमारे गांव के लोकप्रिय ग्राम देवताओं में श्री थानापति बाबा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। बाबा का स्थान कुरसठ से गौसगंज जाने वाली सड़क के किनारे है। जिस स्थान की दूरी गाँव कुरसठ से लगभग एक किलोमीटर है।
मेरा बचपन, मेरे पिता का बचपन तथा मेरे दादा बचपन
सबके लिए इस स्थान की महत्ता है। मेरे दादा किसान थे, उन्होंने हमें बताया था इसके पास उपस्थिति कुएं से पूरे इलाके के किसान पानी भरने आते थे, यहाँ छाँव के लिए एक पकरिये का पेड़ था, जो राहगीरों के लिए सराय का कार्य करता था। लोग बैठकर सुस्ताते थे और फिर अपने गंतव्य के लिए रवाना होते थे। बाद में पकरिये का पेड़ गिर गया तब मेरे सामने यहाँ भल्लू भुरजी ने एक पीपल का पेड़ लगाया था। आज यह पेड़ इतना बड़ा हो गया है कि यकीन नहीं होता कि इसकी उम्र मेरी उम्र से कम है।
मेरे अंदर का डर इस स्थान की वजह से ही भगा था। पहले हम खेत जाते समय डरते थे तब बुज़ुर्ग पांडे बाबा ने सिखाया था, यदि दर लगे तो बरम्बाबा का नाम लेने भर से भय का भूत भाग जाता है। इस स्थान की बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं।यह स्थान आधात्म्य का केंद्र होने के साथ ही साथ पौराणिक रूप से भी महत्व रखता है। यहाँ किसी ने कभी टटका टोना नहीं किया और न ही कोई अंधविश्वास से कोई काम लिया। यहां लोग अपनी आस्था और विश्वास की वजह से आते हैं। बाबा किसी एक जाति और मज़हब के नहीं हैं वरन यहां हिन्दू मुसलमान, पढ़े लिखे या अनपढ़ सभी का सर स्थान से गुजरते ही नतमस्तक हो जाता है। बाबा के स्थान पर लोग मन्नत मानते हैं और बहुतों को मन्नतें पूरी भी हुई हैं। हम आज भी खेत जाते और खेत से आते समय यहाँ पानी पिये बिना नहीं रहा पाते।
वैसे तो इस स्थान हमेशा कुछ न होता रहता है लेकिन महिलाओं के पवित्र त्यौहार करवाचौथ के दिन यहाँ चहल-पहल बढ़ जाती है। दो दिन तक चलने वाले मेले के आखिरी दिन दंगल का आयोजन किया जाता है जहाँ जिले के प्रसिद्ध पहलवानों से लेकर देश और प्रदेश के पहलवान हिस्सा लेते हैं। गांव के नौजवानों को भी इसी बहाने हाँथ आजमाने का मौक़ा मिल जाता है। समय के बदले स्वरूप से बावजूद भी आज भी यहाँ लोकप्रिय लोक नृत्य नौटंकी का आयोजन किया जाता है। कलाकारों के लिए यह स्थान आज भी वैसा ही है जैसे हमारे बुजुर्गों के समय था।
Monday, September 25, 2017
कुरसठ के चुनाव
कुछ दिन बाद हमारे गांव में नगर पंचायत के चुनाव आने वाले हैं। अंदाजन 40 से पचास लोग चैयरमेन के लिए अपना दावा पेश करेंगे। जिनमें से लगभग 30 लोग एक ही समुदाय से होंगें, और इनमें से लगभग सभी व्यक्ति मोदी जी के पक्के भक्त हैं। हर कोई चाहेगा कि उसके पम्पलेट में मोदी जी का फोटो छपे। कुछ लोगों ने तो अभी से ही बड़े बड़े होडिंग लगा दिए हैं बाकायदा फ़ोटो के साथ। कुछ लौंडे भी मैदान में हैं। उन्होंने ने तो योगी कुर्ता भी पहनना शुरू कर दिया है। दूर से ही प्रणाम करते हैं। इनमें से अधिकतर लौंडों को मैं नाम और शक्ल दोनों से नहीं जानता। लेकिन ज़्यादातर लौंडे मुझे मेरी चाल से पहचानते हैं।
इस बार के चुनाव में भाई भतीजावाद चले ऐसा कम ही है क्योंकि जीतने वाले अधिकतर उम्मीद एक ही समुदाय से होंगे, ऐसा पान की दुकान पर सुना। खैर कोई भी जीते, लेकिन आँकड़ेबाजों की मानें तो यह चुनाव इस बार सिर फुटव्वल तक जाएगा।
कसक देखिये की, हमारे लोग (कुम्हार) आज तक मेम्बर तक का चुनाव नहीं जीते पाए। कई बार खड़े हुए मुंह की खानी पड़ी। ऐसा नही की हमारे वोट नहीं, लेकिन, वो कहते हैं न कि, राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है इसलिए हमलोग आधे एक मुहल्ले में कर दिये जाते हैं और आधे दूसरे में।
अब हम ही वो वोटर हैं जो जीत और हार के आंकड़े बिगाड़ सकते हैं इसलिए हम पर सभी ने अभी से डोरे डालना शुरू कर दिया है।
इस बार वोट डालने जरूर जाऊंगा ताकि लाइव देख सकूं। हमारे लिए तो वो क्रिकेट मैच जैसा है। चाय के साथ पकौड़े खाऊंगा और चटकारे लेकर खबरों पर ठठ्ठा लगाऊंगा।
चुनाव के बाद एक लंबा लेख लिखूँगा, रिसर्च पर अभी से कार्य चल रहा है। इसलिए रिसर्च वालिंटियर की आवश्यकता है।
Saturday, September 2, 2017
ख़तम पहले जाति-पांत करें।
अज़नबी ही सही कोई बात करें,
ये सफ़र तय साथ-साथ करें।
दुश्मनी भूल कर दोस्ती से कहो,
नफ़रतों से दो-चार हाँथ करें।
राह में कांटे कंकड़ बहुत हैं यहाँ,
चलो मेहनत दिन और रात करें।
धर्म की बात भी यदि ज़रूरी यहाँ
तो ख़तम पहले जाति-पांत करें।
फ़ोन करते 'शिशु' हैं बराबर, मगर,
वक़्त निकाल चलो मुलाक़ात करें।
Wednesday, August 23, 2017
ज़िन्दगी का नहीं कोई आधार है...
गप्पबाज़ी यहाँ अब धुआँधार है।...
सत्य का आजकल फ़ीका बाज़ार है।
बादलों का लगा देखो अम्बार है।।
सर छुपाने का कोई न आसार है।
डाकबाबू न लाया कोई तार है।।
Wednesday, May 24, 2017
रस्म और रिवाज
रस्म एक टोटका है जबकि,
रिवाज में अंधविश्वास की बू आती है।
और धर्म इन दोनों की रक्षक,
वो इन्हें एक साथ आगे बढ़ाती है।।
रस्म और रिवाज़ का विरोध
कोई क्यों नहीं करता है?
क्योंकि व्यक्ति 'आस्था' और
'धर्म' से बहुत डरता है।।
ढोंगी-पाखण्डी इन रस्मों और
रिवाजों के रखवाले हैं।
आस्तिक इनके गुलाम और
'नास्तिक' प्रश्न करने वाले हैं।।
कुछ भी।
रात के सफ़र में आप अकेले नहीं हैं 'शिशु',
चाँद-तारे, हवाओं का कारवां भी साथ है।
उसके प्यार का नशा इस क़दर चढ़ा
'शिशु' अब पीने की नौबत नहीं आती।
इस कदर सँभला हूँ बिगड़कर कि,
मुझमें कोईं सोहबत नज़र नहीं आती।
सोहबत:- वह बात (विशेषतः बुरी बात) जो बुरी संगत के कारण सीखी गयी हो।
शहादत को यूँही कभी भुलाया न जाएगा,
गुनाहगार को कटघरे में लाया ही जाएगा।।
बक्से नहीं जाएंगे जो साँप आस्तीनों में हैं,
उनको पहले ही शूली पर चढ़ाया जाएगा।।
कितनी पी है ख़बर नहीं कुछ,
फिर से कुछ पी लेता हूँ।
रो-रो जीवन कब तक काटूँ,
अब हंस कर जी लेता हूँ।।
गाँव को क़स्बा बनाने पर अड़ा हूँ मैं।
मील का पत्थर, किनारे पर गड़ा हूँ मैं।
आप गुजरें इस सहारे पर खड़ा हूँ मैं।।
भीड़ है भारी लेकिन हैं बस्तियां सुनसान,
गाँव को क़स्बा बनाने पर अड़ा हूँ मैं।
प्यार में उसने मुझे क्या देवता बोला,
ख़ुद ही ख़ुद का बुत बनाने पर अड़ा हूँ मैं।
घर के लोगों में मची है लूट चारों ओर,
इन झमेलों में न जाने क्यों पड़ा हूँ मैं।
युद्ध को भड़का रहे हैं धर्म के रक्षक,
शांति के पैग़ाम के अंदर सड़ा हूँ मैं।।
गाँव का होकर गाँव की नहीं!
गाँव का होकर, गाँव की नहीं,
किसी बिरवे की छाँव की नहीं,
धूल और नंगे पाँव की नहीं,
नदी, तालाब, नाव की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!
बकरी, भैंस, गइया की नहीं,
चरवाहे भैया कन्हैया की नहीं,
स्वरचित गीत गवैया की नहीं,
छंद, चौपाई, सवैया की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!
मुसीबत के मारे इंसान की नहीं,
खेत, खलिहान, किसान की नहीं,
लोन, तेल, आटा-पिसान की नहीं,
अपनों के चोट के निशान की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!
छप्पर, बिस्तर , खाट की नहीं,
दरवाजे पर टंगे, टाट की नहीं,
अपनों से मिली डाँट की नहीं,
गाँव के मेला, हाट की नहीं !
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!
Wednesday, April 5, 2017
अग्नि की अब परीक्षा ज़रूरत नहीं
कर्म का फ़ल मिलेगा अभी के अभी।
हो पुनर्जन्म का कोई झंझट नहीं,
पूर्ण कारज करो जी अभी के अभी।।
अग्नि की अब परीक्षा ज़रूरत नहीं,
कौन कहता है तुम ख़ूबसूरत नहीं।
राम की झूठी कसमें न खाया करो,
राम दिल में बसे कोई मूरत नहीं।
भाई कैसे मिले राम जैसा कहीं-
जब लखन न मिले उनके जैसा कहीं।
बात रिश्तों की बनती-बिगड़ती गयी
बाप मिल जाएंगे, मिलता पैसा नहीं।।
धारणा बन गयी पैसे का है समय,
अब गरीबों का बिल्कुल नहीं ये समय।
आ गया अब समय आप जैसों का है,
मेरे जैसों का बिल्कुल नहीं ये समय।।
Wednesday, February 15, 2017
असली न लोग रंग किसको लगाऊं मै.....
असली न लोग रंग किसको लगाऊं मै!
रंग किसको लगाऊं मै!
प्यार है दिखावा ही प्रेमिका न अपनी है,
अपनी न भाभी कोई सारी ही मैडम हैं !
रंग किसको लगाऊं मै!
भीड़-भाड़ इतनी है मेला हाट जितनी है,
कौन कौन अपनों है कुछ न समझ आवे है!
रंग किसको लगाऊं मै!
इंग्लिश ही मिलती है देशी का नाम नहीं,
'और हम जैसे लोंगन का यंहा कोई काम नहीं !
रंग किसको लगाऊं मै!
'शिशु' कहें पीने पिलाने का दौर यंहा कन्हा,
जितना मज़ा गाँव में है उतना और कन्हा
रंग किसको लगाऊं मै!
प्रातःकाल करो मतदान, वोट कीमती है जानो।
यदि कुछ करने की इच्छा है।
अब तक वोटर को नेता से,
मिली भीख में बस भिक्षा है।।
समय के अपराधी होंगे हम,
अब भी नहीं चेतना जागी।
अपना वोट डालने की यदि
ख़ुद में लगन नहीं लागी।।
फिर पीछे से मत कहना,
सब नेता भ्रष्टाचारी हैं।
'शिशु' समझ में ये आयेगा,
बुद्धि भ्रष्ट तुम्हारी है।।
प्रातःकाल करो मतदान,
वोट कीमती है जानो।
लोकत्रंत के इस संगम की
महिमा को सब पहचानों।।
#उत्तरप्रदेश #चुनाव कुरसठ युवा मंच
Monday, February 13, 2017
कविता का शीर्षक आप जो उचित समझें।
बाग़ हुए ग़ायब क्यों-
पसरा खेतों में सन्नाटा है।
क्यों हमने खेती की ख़ातिर
तालाबों को पाटा है?
पगडंडी को काट-छाँट कर
फ़सलें बोयी जाती क्यों?
चरागाह के लिए नज़र अब
भूमि नहीं आती है क्यों?
सड़क किनारे आम और
महुए के पेड़ नहीं दिखते।
क्यों पढ़ने-लिखने वाले अब
इन पर शोध नहीं लिखते?
सुना है विद्यालय, शिक्षा की-
परिभाषा है बदल गयी।
पढ़ने और पढ़ाने वालों की
भाषा भी बदल गयी।।
'शिशु' याद हैं वो दिन,
जब हम विद्यालय जाते थे।
उपयोगी शिक्षा के साथ
ज्ञान प्राकृतिक पाते थे।
याद आ गए बाग़ और वो-
जंगल जिनमें जाते थे।
जहाँ इमलिया, खट्टे बेर
यार-दोस्त संग खाते थे।।
अब विद्यालय के नज़दीक
कोई बाग़ नहीं दिखते।
पर्यावरण प्रदूषण पर अब
बच्चे हैं निबंध लिखते।।
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