Thursday, December 18, 2008

आम आदमी - एक कटु परिभाषा

सामान्यतः आम आदमी खाने-पीने, बच्चे पैदा करने और सोने की मूल प्रक्रिया में ही अपना सारा जीवन बिताते हैं। सामान्य लोग शक्ति के शोषण, करोबारी मामलों, धोखेबाजी और जालसाजी से इन प्रक्रियाओं की समतल धारा को सुनिश्चित करता है। सामान्य लोग पौष्टिक भोजन खा खा कर दूसरों के प्रति निर्दयी और निष्ठुर होते हुए धार्मिक विनम्रता में जीवन बिताते हैं।

आमलोग मंगल या शनिवार को मांस नहीं खाते और मंगल एवं शनिवार को मंदिर जाते हैं ताकि भगवान के सामने अपने कटु और पापी जीवन का रोना रोयें। और भगवान से क्षमा याचना कर सकें। आमतौर पर ये लोग व्रत रखते हैं। तांत्रिक या गुरू से पाप दूर करने के लिए शिक्षा लेते। प्रसाद बांटते। जबकि यही लोग लगातार उन लोगों के शरीर पर अत्याधिक काम का बोझ डालते और उनका खून चूसते जो सामान्य जीवन की पुष्टि और समृद्धि के लिए काम कर रहे होते हैं। सामान्य लोगों के पास पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों का अपना एक छोटा मगर पवित्र भंडार रहता है। आत्मरक्षा की इस समस्त सामग्री को भगवान और शैतान सारहीन विश्वास तथा मानव बुद्धि के प्रति कुंठित अविश्वास से जोड़ देते हैं।

दूसरी बात यह जो लोग देखने में भोलेनाथ लगते हैं उनका यह भोलापन ढोंग हो सकता है। जो उनकी बुद्धि के लिए परदे का काम करती है जिससे वे स्वयं सामान्य लोग जीवन में काम लेते हैं।

(यह कटु परिभाषा गोर्की के निबंध ‘लेखनकला और रचना कौशल’ से ली गयी है)

इस लेख से यदि किसी व्यक्ति की धार्मिक या व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को ठेंस लगाती है तो लेखक उसका जिम्मेदार नही है।

Wednesday, December 17, 2008

अब दिल्ली ‘रानी दिल्ली’ बनेगी!

दिल्ली को विश्वस्तरीय नगर बनाने का सिलसिला जारी है। कल दैनिक जागरण के ऑनलाइन न्यूज पेपर में एक अहम बात और पढ़ने को मिली कि इस साल में दिल्ली चमकेगी। सुनने वालों को यह बात बहुत अच्छी लगेगी। इस साल दिल्ली सरकार का नगरीय प्रशासन नए साल से सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी व पेशाब करने वालों के खिलाफ कार्यवाई का मन बना रहा है। मतलब साफ है कि अब दिल्ली में गरीबों को इससे भी वंचित रहना पड़ सकता है, क्योंकि पहले ही सार्वजनिक शौचालयों की कमी है और यदि कहीं पर हैं तो वे पॉश इलाके की कॉलोनिया तथा मंहगे मार्केट के नजदीक हैं। सुनने में यह बात भले ही हास्यास्पद लगे लेकिन है सौ प्रतिशत सच।

इस
साफ सफाई का कारण दिल्ली सरकार के पास एक है और वह है 2010 में आयोजित होने वाले राष्ट्रमण्डल खेल। खेल शुरू होने से पहले दिल्ली सरकार दिल्ली को रानी बनाने पर आमादा है। इसके लिए अब तक कई चरणों में गरीब और गरीबी हटाने के अभियान चलाये जा चुके हैं। इस सदी की शुरूआत में शहर के साढ़े तीन हजार छोटे-मोटे कुटिर उद्योगों को बन्द कर दिया गया। व्यापक विरोध और हिंसक झड़पों के बावजूद कहीं उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। होती भी कैसे? अदालत ने ही तो आदेश दिये थे कि ये सारे उद्योग देश की राजधानी से बाहर ले जाये जाएं। सुनने में तो यहां तक आया कि दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों व सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए नए साल से शहर को स्वच्छ बनाने हेतु गंदगी निरोधी कानून भी बन गया है और जिसे लागू करने के लिए कड़े इंतजाम किए जा रहा है।

अब तक दिल्ली को सुन्दर बनाने के अभियान में झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ने के कई दौर चले हैं। एक-एक कर के यमुना के किनारे (इसे दिल्ली की भाषा में यमुना पुश्ता कहते हैं) बसी तमाम झुग्गी बस्तियां बुलडोजर के तले आ गयीं। लाखो-लाख परिवार उजड़े, टूटे। लेकिन ये शहरी गरीब लोग भी कम ढीठ नहीं एक आशियाना टूटा दूसरा फिर बना लिया। और बनाये भी क्यों नहीं रोजी-रोटी का सवाल जो है। अभी तक दिल्ली को सुन्दर बनाने में केवल शहरी गरीब ही आडे आ रहे थे लेकिन अब दिल्ली की सुन्दरता की गाज गिरी है सड़क के किनारे या पहले से कूड़े के ठेर पर पेशाब करने वालों पर।

अबसे गंदगी करने वालों से तत्काल 50 रूपये का जुर्माना वसूला जायेगा। शुक्र है कि रेलवे की तरह ‘500 रूपये जुर्माना और 6 महीने की कैद‘ वाला कानून लागू नहीं हुआ, नहीं तो क्या गरीब और क्या अमीर मतलब अच्छे-अच्छों को यह सुनकर इस सर्दी में पसीना आ जाता।

Wednesday, December 3, 2008

विकलांग व्यक्तियों के मानवाधिकार

इस समय दुनियाभर में तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी किसी न किसी तरह की विकलांगता से ग्रस्त है। इनमें से ज्यादातर लोग विकासशील देशों में रहते हैं, कयोंकि गरीबी विकलांगता का पर्याय है। भारत की जनगणना 2001 के अनुसार खुद भारत में करीब 21,906,769 लोग विकलांगता से ग्रस्त हैं, जिसमें 12,605,635 पुरूष और 9,301,134 महिलाएं हैं। इन विकलांग व्यक्तियों की ज्यादातर संख्या निर्धनता और अभावों में व्यतीत होती है। जीवन यापन के मूलभूत सुविधाएं रोटी, कपड़ा और मकान तो दूर की बात है सामाजिक अधिकार तक इनके पास सीमित हैं।

मानवाधिकार व्यक्ति और सरकार के बीच बनने वाले संबंधों को परिभाषित करते हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को मिलते हैं और वह अकेले या औरों के साथ मिलकर इन अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं। इन अधिकारों में सरकार को संबोधित किया जाता है।

विकलांग व्यक्तियों के मानवाधिकार
सर्व प्रथम 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा पारित सर्वभौमिक मनवाधिकारों का पहला अंतराष्ट्रीय दस्तावेज है जिसमें विकलांग व्यक्तियों को दूसरे आम नागरिकों की तरह मानवीय समानता का अश्वासन दिया गया।
  • 1958 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के द्वारा पारित की गई भेदभाव (रोजगार एवं व्यवसाय निषेद) उद्घोषणा की धारा 5 में अपंग व्यक्तियों की आवश्यकताओं और चिंताओं को भी मान्यता दी गयी।
  • 20 दिसम्बर 1971 को संयुक्त राष्ट्र सभा ने अपंग प्रस्ताव संख्या 2865 के जरिये मानसिक रूप से अविकसित व्यक्तियों के अधिकारों पर अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र जारी किया। इसके अनुसार इन व्यक्तियों को भी आम नागरिक की तरह अधिकार मिलने चाहिए।
  • चार साल बाद 1975 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव संख्या 3447 के माध्यम से अपंग व्यक्तियों के अधिकारों का घोषण पत्र जारी किया। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ में विकलांग व्यक्तियों को निम्नलिखित अधिकार मिले-
  1. उनकी मानवीय प्रतिष्ठा के प्रति सम्मान का अधिकार
  2. दूसरे नागरिकों की तरह सभी नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों के उपभोग का अधिकार
  3. अधिकाधिक आत्मनिर्भर बनाने के लिए तैयार किए जाने वाले कार्यक्रमों का अधिकार
  4. आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा
  5. अपने परिवार या धय माता-पिता के पास रहने का अधिकार और सभी सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी का अधिकार
  6. किसी भी तरह के शोषण या भेदभाव से सुरक्षा का अधिकार
  7. अपनी संपत्ति और शरीरिक सुरक्षा के लिए कानूनी सहायता का अधिकार
  • सन् 1983-92 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपंग व्यक्ति दशक घोषित किया था। इस कार्यक्रम से विकलांग व्यक्तियों को समाज में समानता और सहभागिता प्रदान करने में काफी मदद मिली।
  • इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1993-2002 को एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों में अपंग व्यक्ति दशक घोषित किया। इस धारणा से यहां की सरकारों को अपंग व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में और मदद मिली। दिसंबर 1993 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपंग व्यक्तियों के लिए अवसरों की समानता के विषय में मानक नियम तैयार किए।
  • 7 फरवरी 1996 को स्वयं सहायता संगठनों और नेशनल फेडरेशन ऑफ दि ब्लाइंड के लंबे एवं ऐतिहासिक संघर्ष के बाद अपंग व्यक्तियों के अधिकारों पर एक समग्र भारतीय कानून पारित हुआ। यह कानून विकलांग व्यक्तियों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपंगता के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकता है। इस कानून में महत्वपूर्ण अधिकार इस प्रकार हैं-
  1. 18 वर्ष की उम्र तक निशुल्क शिक्षा का अधिकार
  2. सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण के आधार पर रोजगार के क्षेत्र में प्राथमिकता का अधिकार
  3. जमीन और मकानों के आवंटन में प्राथमिकता का अधिकार
  4. जीवन, शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार इत्यादि के किसी भी क्षेत्र में विकलांगता के आधार पर होने वाले भेदभाव के निषेद का अधिकार
  5. इमारतो, सड़को, यातायात सुविधाओ, तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं में पहुंच का अधिकार
  • इसके अतिरिक्त हमारे देश की अनूठी संघीय संरचना को ध्यान में रखते हुए इस केंद्रीय कानून को प्रातींय स्तर पर लागू करवा पाना एक चुनौती भरा काम है। इस चुनौती से निपटने के लिए इस कानून में निम्नलिखित क्रियान्वयन निकायों का भी प्रावधान किया गया है।
  1. केंद्रीय स्तर पर केंद्रीय समन्वय समिति और प्रांतीय स्तर पर राज्य समन्वय समतियों का गठन किया जाएगा इन समतियों से अपेक्षा की जाती है कि वह अपंग व्यक्तियों के लिए नीति नियोजन एवं निर्धारण तथा कार्यक्रम तैयार करने का काम करेंगी।
  2. केंद्रीय सतर पर मुख्य आयुक्त और राज्य स्तर पर राज्य आयुक्तों की नियुक्ति। इन आयुक्तों का इस कानून के तहत जीवन के विभिनन क्षेत्रों मे चलाये जाने वाली विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन और उस पर लगातार नजर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इस कानून के किसी भी प्रावधान के उल्लंघन को अपंग व्यक्तियों के मानवाधिकारों का उल्ंघन माना जाएगा और उसे संज्ञेय अपराध की श्रेण में रखा गया है।
  3. विकलांगता से संबंधित विभिन्न विषयों से संबंधित मौजूदा सार्वजनिक कानूना में पक्षतापूर्ण प्राधानों क पहचान। इस कानून में ऐसे प्रावधान है कि जिससे अपंग व्यक्ति संविधान द्वारा मिले उन अधिकारों का उसी प्रकार प्रयोग कर सके जैसे गैर अपंग नागरिक करते हैं।

मैं स्वयं एक विकलांग व्यक्ति होने के नाते, इस निबंध को पढ़ने वालों से आहवान करता हूं कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे इन अधिकारों को विकलांग व्यक्तियों को दें और भेदभाव की जगह समानता, और बेदखली की जगह सहभागिता पर आधारित एक नई सामाजिक व्यवस्था की रचना के कार्यभार में आगे बढ़ायें।

Tuesday, December 2, 2008

विलुप्त होती ग्रामीण बोली-भाषा

ग्रामीण बोल-चाल की भाषा मीठी होती है। इस भाषा के शब्द सीधे, सरल, मधुर और साधारण होते है। पढ़े-लिखे से लेकर साधारण (कम पढ़े लिखे या अनपढ़) व्यक्ति भी इसकी भाषा को आसानी से समझ सकते हैं। मतलब कि इसकी भाषा को समझने में कोई परेशानी नहीं होती। शहर के लोग जब गांव आते हैं तो वह भी गांव की बोली-भाषा को समझने और बोलने का प्रयास करते हैं। उन्हें भी लगता है कि गांव की भाषा में कितना अपनापन है। गांव में हम अनजान व्यक्ति को भी बाबा, दादी, अम्मा, चाचा, भइया और दीदी या बहन कहते हैं जबकि शहरों में इन अनेक शब्दों के केवल दो शब्द रह गये हैं - सर और मैडम।

प्राकृतिक शब्दों को भी ग्रामीण भाषा में बोलते समय सजीव सा लगता है। देखिये - ‘‘पाला कानों को काट रहा है’’, ‘‘सूर्य मुस्करा रहा है’’, ‘‘बारिस आ गयी है’’, ‘‘फागुन चल रहा है’’ और मौसम में कैसी सनक है। जबकि इन्ही शब्दों को शहरी भाषा में कहते हैं- पाला पड़ रहा है। धूप तेज है, बरसात हो रही है, अपै्रल है, मौसम रंगीन है।

प्राचीन दादी, नानी की कहानियां ग्रामीण भाषा की ही देन हैं फिर चाहे वह डरावनी राक्षसी कहानियां हो, या खरगोश और कछुवा की दौड़, चंदा मामा, चूहा बिल्ली और शेर और खरगोश की कहानियां हों। ये सभी कहानियां ग्रामीण भाषा की देन हैं या कहें हमारी ग्रामीण भाषा की धरोहर हैं।

ज्यादातर शहरी लोग जो गांवो से आकर शहरों में बस गये हैं इस अपनेपन की भाषा को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोगों से तो मैंने यहां तक सुना कि गांव की भाषा निरे अनपढ और नीच लोगों की बोलचाल की भाषा है। तो क्या भाईजान आप शहरों में पैदा हुए, क्या आपके बाप-दादा, या पूर्वज गांवों की उपज नहीं हैं? इस बात पर यह पढ़े-लिखे लोग बिगड़ जायेंगे। उस समय तो मेरे सामने यह ग्रामीण मुहाबरा ही है जो इन गांव से आये शहरी पर ठीक बैठेगा- भैंस के आगे बीन बजाये, भैंस खड़ी पगुराय’’।

अब हमारी यही ग्रामीण भाषा धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। गांव के पढ़े-लिखे युवक गांव की बोली बोलने में झिझकते हैं, उन्हें शर्म महसूस होती है। रोजी-रोटी ने उनकी अपनी भाषा को छुडाने का कारण बन गयी है। गांव के शहरी, शहरी भाषा के चक्कर में पड़ गये हैं। यही गांव के ज्यादातर लोग जब गांवों में जाते हैं तो रटे-रटाये अंग्रेजी शब्दों को बोलते नजर आते हैं। वे ‘तमीज’ में बात करते हैं। अब यदि यही ‘तमीज’ में बात करने वाले लोग गांव की भाषा-बोली बोलने से कतराये तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी यह प्राचीन भाषा गंदगी मिटाने वाले गिद्ध की तरफ गायब हो जायेगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि शहरों में रहें तो शहर की भाषा बोलें और जब गांव जायें तो गांव की भाषा में ही बात करें।

Monday, December 1, 2008

दूल्हा ट्राफिक में फंस गया

शादी का बुलावा आया
मैंने जाने का प्रोग्राम बनाया
साथ चलने के लिए एक दोस्त को फ़ोन घुमाया
ओके ओके, दोस्त का जवाब आया
वह भी एक के साथ एक दूसरा लाया
हम पहुँचे और यह हिसाब लगाया
यार, क्या बात है दूल्हा नज़र नही आया
बैंड वाला आया, ढोल वाला एक जगह बजा के वापस आया
मैंने कहा माज़रा क्या है?
दूल्हा कान्हा गया
पता लगाते लगाते लग गया
दूल्हा तो ट्राफिक में फंस गया
खैर दूल्हा ९ बजे आया
बैंड वाले ने बैंड और घोडी वाले ने घोडी सजाया
झटपट घोडी पर दूल्हे को बिठाया
नाचते नाचते १० बजे दुल्हन का घर आया
हमने फटाफट खाना खाया
सड़क पर आकर ऑटो ऑटो चिल्लाया
घर आकर दरवाजा खटखटाया
बीबी को सोते से जगाया
घड़ी पर नज़र गई तो १२ बजे बजते पाया
और बीबी का भी मुंह इधर उधर बनाते पाया

Saturday, November 29, 2008

आतंक, दहशतगर्दी वो सिर्फ़ जेहाद के लिए करते हैं.....

इस समय जो परिस्थिति है
हमारे देश की जो स्थिति है
वही हमारे पड़ोसी मुल्क की है
फिर भी उसके दिमाग की बत्ती गुल है

हम परेशान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश को ही क्यूँ चुना?
वो भी हैरान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश का ही नाम क्यूँ चुना?

वो कहते हैं कि हमारे देश को बदनाम क्यूँ करते हो?
हम कहते हैं कि हमारे देश में ही क्यूँ तुम यह काम करते हो?
वो कहते हैं कि हमें पता नही कि दहशतगर्द कंहा रहते,
हम कहते हैं कि एक बार आने दो हमें,
हम पता कर लेंगे कि वो कंहा - कंहा नही रहते!

आतंक, दहशतगर्दी वो सिर्फ़ जेहाद के लिए करते हैं
हम बार बार उनसे प्रार्थना करते हैं
क्या खुदा इसी से खुश होगा?
तुम्हे इसके बदले दुआ में क्या - क्या देगा?

अब इससे पहले खुदा उन्हें कुछ दे
हम प्रार्थना के बदले उन्हें मौत देंगे
'शिशु' इस देश की बात नही करते
पुरे विश्व में दहशतगर्दों को सख्त सज़ा देंगे

दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले

दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले,
पैदा करते हैं मुक्ति बीज,
फिर और बीज पैदा करने को,
जिसे ले जाती हवा दूर,
और फिर बोती है,
और जिसे पोषित करते हैं
वर्षा, जल और हिम!
देहमुक्त जो हुआ,
आत्मा उसे न कर सके विछ्न्न,
अस्त्र - शस्त्र अत्याचारों के,
बल्कि हो अजेय रमती धरती पर,
मर्मर करती बतियाती चौकस करती !!
(यह कविता भगत सिंह की आत्मकथा में संगृहीत है )

Friday, November 28, 2008

पप्पू नही कहाऊंगा

मौसम सर्द है
सर में कुछ कुछ दर्द है
फिर भी वोट डालने जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

कमीशन ने समझाया है,
मेरे दिमाग में आया है
हर बना मै पप्पू
इस बार नही बन जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

सुबह बिना कुछ खाए
और बिना ही नहाये
मोर्निंग वाल्क न जाऊंगा
बूथ की दौड़ लगाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा

कोई जीते कोई हारे
फर्क नही कुछ भी पड़ता
लेकिन ये सच है भाई
हर दम यही ख्याल रहता
ख़त्म इलेक्शन जैसे होगा
हलुआ पुरी खाऊँगा
पर पप्पू नही कहाऊंगा

पापी मैं नहीं, पापी मेरा पेट है

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-
विवाह काले रति संप्रयोगे प्राणाताये सर्वधनापहारे।
विप्रभ्य चार्थे ह्यन्नुतम वदते पक्षी वृतान्यत्नूर।।

अर्थात विवाह के बाद रतिक्रीडा, प्राणवियोग (आत्महत्या) और सर्व स्वापहरण (खुद का धन चुराने) के समय तथा ब्राहम्ण के निमित्त (नियमित) मिथ्या प्रयोग करने से पाप नहीं लगता।

कहा जाता है कि इस दुनिया संसार कोई भी दूध का धुला नहीं है। हर मनुष्य पापी है। फिर चाहे वह राजा हो या रंक। हां पाप करने के तरीके हर किसी के अपने-अपने हैं। और इन किये गये पापों के परिणाम भी अलग अलग तरह के हैं। हर कोई पाप किसी न किसी प्रयोजन के लिए ही करता है। धनीवर्ग पाप करता है पूंजी जमा करने के लिए, नाम के लिए, शोहरत के लिए और ऐशो-आराम के लिए। बाबा लोग पाप के भागीदार बनते हैं पुण्य कमाने के लिए। नेता पाप करते हैं कुर्सी पाने के लिए और राजनेता पाप करते हैं इतिहास दोहराने के लिए। इसी तरह आतंकवादी पाप करते हैं भगवान को खुश करने के लिए अर्थात जेहाद के लिए। हां, आम आदमी का पाप केवल पापी पेट को पालने के लिए होता है। कहने का तात्पर्य यह कि इस पाप की दुनिया में हर कोई पापी है आम आदमी से लेकर खास आदमी तक। भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, चोरी-चकारी, क्या है? पाप है और क्या? लेकिन फिर भी लोग किये जा रहे हैं।

पिता, माता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, कन्या, भार्या, स्वामी, कुटुम्ब के लिए मनुष्य सदियों से पाप करता आ रहा है। किसलिए इसी पापी पेट के लिए। इसी पापी पेट की खातिर आर्य लोग चार श्रेणियों में विभक्त हुए - ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वै’य और शूद्र। यहां शूद्र सबसे निचनी श्रेणी के पापी हैं। इसलिए तब से अब तक सबसे ज्यादा पाप के भागीदार यही लोग हैं। ऐसा शास्त्रों में लिखा है। कहा तो यहां तक जाता है कि पहले के समय यदि मनुष्य समुद्र यात्रा करे तो वह पाप का भागीदार माना जाता था, तो क्या मनुष्य ने समुद्र के रास्ते से यात्रा नही की। की है, किसलिए इसी पापी पेट के लिए।

गीता में जब अर्जुन अपनों के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं होते तो श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया। हे पार्थ धर्म की रक्षा करने के लिए अपने सगे-संबंधियों का वध करोगे तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा। यहां पर अर्जुन का उस समय धर्म क्या था? यही कि अपने भाइयों और सगे-संबंधियों का पेट पालन और कोई दूसरा धर्म तो हमें दिखाई नहीं देता। तो क्या श्रीकृष्ण ने पाप की शिक्षा अर्जुन को नहीं दी, ऐसा कहने से हम विर्धमी कहलाये जायेंगे और पाप की श्रेणी में आ जायेंगे। इसलिए मैं ऐसा पाप नहीं करना चाहता।

जो भी हो मनुष्य जीवन चिरकाल से ही पाप की गठरी से परिपूर्ण है। फिर आप भी हमसे पूछेंगे कि ‘तू क्या पापी नहीं है, इसका मतलब तू भी पापी है।’ जनाब उस समय तो मैं यही कहूंगा कि पापी मैं नहीं पापी मेरा पेट है।

Wednesday, November 26, 2008

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है!

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है,
अफसोस?
मेरे दोस्त,
इस शेखी में दम नहीं है
जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,
जिस बहादुर लड़ते ही हैं,
उसके दुश्मन होते ही हैं
अगर नहीं है तुम्हारे,
तो वह काम ही तुच्छ हैं,
जो तुमने किया है,
तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।
- भगत सिंह (ये कविता भगत सिंह एक जीवनी से ली गई है)

रोजी-रोटी के लिए पलायन से बढ़ रही है शहरी गरीबी

गरीबी की पहचान को लेकर व्यापक बहस चल रही है। सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि गरीबी कम हुई है। इसके लिए आंकड़े तक सरकार द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे हैं। लेकिन इसके विपरीत स्वयंसेवी संस्थाओं की माने तो गरीबी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी है। हालांकि पहले गरीबी केवल गावों में ही देखी जाती थी लेकिन अब गरीबी शहरों में ज्यादा है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं की बातों पर गौर करें तो गांव के गरीबों की तुलना में शहरी गरीबी की हालत ज्यादा ही दयनीय है। ऐसा माना जाता है कि गरीबी तुलनात्मक आधार पर आंकी जाती है। जहां अमेरिका में दैनिक पारिवारिक आय 20 डालर या 800 रूप्ये प्रतिदिन हो तो वह गरीब माना जाता है। हमारे देश में महानगरों में फ्रिज और टीवी एवं पंखे के साथ झुग्गी में रहने वाले परिवार को गरीब माना जाता है। वहीं गावां में बिना फ्रिज, टीवी और कूलर के पक्के मकान में रहने वाला परिवार समृद्ध परिवार की श्रेणी में गिना जाता है। कुछ भी हो भुखमरी और गरीबी से त्रस्त लगभग 80 हजार लोग हर महीने काम के अभाव में पेट की आग बुझाने के लिये महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरी गरीब परिवारों की काफी संख्या सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों जैसे अनुसूचित जाति ओर अन्य पिछड़ी जातियों में से है।

इस बढ़ती शहरी गरीबी पर गौर करें तो देखेंगे कि अब पहले की तुलना में शहरों की तरफ गरीबों का पलायन ज्यादा बढ़ा है। जहां पहले गावों में छोटे-छोटे उद्योग जो उनके लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते थे, कम हो रहे हैं। गांधी जी के चरखों का प्रचलन कम हो रहा है। ये चरखे जहां पहले उन्हें पैसे के अलावा ओढ़ने और पहनने के लिए कपड़े भी उपलबध कराते थे अब लगभग बंद ही हो गये हैं। सनई के बान जिनसे चारपाई बुनी जाती थी, अब लगभग समाप्त ही हो गये हैं। सिलाई का काम करने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय के होते थे, उनकी सिलाई मशीने बंद हो गयी हैं। इन सिलाई मशीनों की जगह पर अब सिले-सिलाये कपड़ों ने ले लिया है। इसलिए उनका पलायन भी शहरों की ओर बढ़ रहा है।


बिहार में आयी इस बार की बाढ़ जिसे वहां के गरीब लोग दैवी आपदा मानते हैं, के कारण उनके घरों के चुल्हें ठंडे कर दिये। ऐसे लोग बाध्य होकर पेट की ज्वाला बुझाने के लिए भूख से तड़पते परिवारीजनों को लेकर महानगरों को कूच कर रहे हैं।


गरीबों का शहरों की ओर पलायन का यही एक मुख्य कारण है। ऐसा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि अब पहले की तुलना में गावों में शिक्षा का स्तर सुधरा है। वहां के युवा शिक्षित होकर काम के तलाश में शहरों की तरफ रूख करते हैं।


इस बढ़ते पलायन को बढ़ावा देने में हमारा मीडिया और टीवी जगत का भी बहुत बड़ा योगदान है। उसने फिल्मी दुनिया की चकाचौध कुछ इस तरह से दिखाई है कि गांव का युवावर्ग जींस और टी’ार्ट पहनने के चक्कर में गावों से शहरों की तरफ खिचें चले आ रहे हैं।


जलवायु परिवर्तन भी गरीबी को बढ़ाने में अपना काम कर रही है। इसका सीधा असर खेती पर देखा जा रहा है। जिन इलाकों में पहले बारिस होती थी वहां सूखा पड़ रहा है और जहां सूखा था वहां बारिस हो रही है जिसके कारण खेती की फसल बेकार हो रही है। इस तरह खेती की दयनीय स्थिति को देखकर गांव के ज्यादातर लोग शहरों में पलायन कर रहे हैं।

जो भी हो यह तो स्पष्ट है कि इस पलायन ने शहरों में गरीबी के आंकड़ों को गावों की तुलना में बढ़ाया है। जिससे शहरों में रोजगार की कमी हो रही है। इस बढ़ती शहरी गरीबी को कम करने के लिए सरकार समय-समय पर संगोष्ठियां, सेमिनार आयोजित करता रहता है। आज विश्व के ज्यादातर महत्वपूर्ण निर्णय, खासकर, के आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, पूँजीपतियों - औद्योगिक घरानों के दबाव में या उनके पक्ष में लिए जा रहे हैं। और ये संस्थान गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए विकासशील देशों पर अपने दबाव डालते हैं। वर्तमान सरकार ने ग्रामीण गरीब अकुशल मजदूरों के लिए करीब एक वर्ष पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया। सरकारी योजनाओं की तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में अनियमितताएँ व भ्रष्टाचार नहीं होगा आखिर इसकी क्या गारंटी है। दूसरी बात यह कि क्या 100 दिन के रोजगार से गावों से पलायन करने वालों की कमी होगी? ऐसी योजनाएं क्या गावों के गरीबों को पलायन रोकने में सहायक साबित होंगी अभी से कहना ठीक नहीं होगा।

Monday, November 24, 2008

इसीलिये देलही में सिक्को की कमी है.... !

आजकल मार्केट में सिक्को की कमी देखी जा रही है। हर कोई इन सिक्को को लेकर परेशान है. देलही की बसों का तो और भी बुरा हाल है. वंहा पर बस कंडेक्टर और यात्रियों के बीच कहा सुनी से लेकर मारपीट तक की नौबत आ जाती है. मार्केट में इन सिक्को के कारण उपभोक्ताओं को सामान एक - दो रूपये का ज्यादा खरीदना पड़ रहा है.

इन सिक्को की कमी का कारण आम आदमी के समझ से परे है। वो तो पहले ही रुपये की कमी से परेशान हैं. एक तो तन्खवाह नही मिल रही दूसरी तरह चीजो के दाम इतने बढ़ गए हैं की तंगहाली की नौबत आ गई है. एक तो महगाई और ऊपर से चुनाव सोने पर सुहागा है. उसपर से इन सिक्कों की कमी. और कारणों को समझाना थोड़ा कठिन है लेकिन सिक्को की कमी की बात अब समझ में आ रही है.

दरअसल चुनावी समर को भुनाने के लिए जब से नेताओं में खुद को सिक्कों में तौलवाने की होड़ लगी है तब से देलही में सिक्के जैसे गायब ही हो गए हैं। सिक्के तौलने वालों की जैसे लाटरी लग गई है। नेताओं को तौलने के लिए न केवल अब किराए पर तराजू मिल रहे हैंए बल्कि हजारों का कारोबार शुरू हो चुका है। इन दिनों में एक आध लोग तो दुकानदारों को सिक्कों की सप्लाई का काम करते हैं रोजाना दो से चार नेताओं द्वारा तराजू बुक कराया जा रहा है। नेताजी भी किराए के तराजू व सिक्कों में खुद को तौलवा कर इतराते नहीं थकते।

जो भी हो इतना तय है की चुनाव आते ही आम जनता की मुश्किलें बढ़ जाती हैं. कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं. की देलही में मिठाई के दुकानों में लड्डुओं की भारी कमी है. क्यूंकि कुछ नेता तो अपने को लड्डुओं से भी तुला रहे हैं. मिठाई बेंचने वाले खुश हैं लेकिन खाने वाले नाखुश. सीधी सी बात यह है इन के चक्कर में हम जैसे लोग जो बसों में सफर करते हैं परेशान हैं वो परेशान वो लोग भी हैं जो लड्डू खाने के शौकीन हैं. नही तो नेताओं और दूकानदारों के दोनों हाथों में लड्डू तो हैं ही.

Friday, November 21, 2008

CAN AMICABLE SETTLEMENT TURNED BY NATIONALISED BANKS WITH REGARD TO DISABILITY ? Petition

CAN AMICABLE SETTLEMENT TURNED BY NATIONALISED BANKS WITH REGARD TO DISABILITY ? Petition

धन, स्वास्थ्य और सदाचार में सबसे बड़ा कौन?

हमने स्कूल के दिनों में एक दोहा पढ़ा था। जो इस प्रकार था-

धन यदि गया, गया नहीं कुछ भी,
स्वास्थ्य गये कुछ जाता है
सदाचार यदि गया मनुज का
सब कुछ ही लुट जाता है।

इसी दोहे को कहीं-कहीं पर कुछ इस तरह लिखे देखा था-
धन बल, जन बल, बुद्धि अपार, सदाचार बिन सब बेकार।

इन दोहों का उस समय के मनुष्यों पर क्या असर पड़ता था या उस समय इसके क्या मायने थे, मैं नहीं बता सकता, क्योंकि वे हमारे बचपन के दिन थे। लेकिन अब इसका अर्थ बदला है। अब सदाचार के मायने क्या रह गये हैं हम सभी के सामने हैं। इसके अर्थ को समझने के लिए मैंने इसे तीन भागों में विभाजित किया है। पहले हम सदाचार की बातें करेंगे फिर स्वास्थ्य की और आखिर में धन की।

ऐसा समझा जाता है कि यदि मनुष्य सदाचारी है तो उसका जीवन सफल है। सदाचारी व्यक्ति दूसरों की नज़र में हमेशा प्रसिद्धि पाता है। लोग उसकी बढ़ाई करते हैं। उसके गुणगान करते हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. रामचरण महेन्द्र जी ने सदाचार की परिभाषा कुछ इस प्रकार से की है-‘‘सदाचार ही सुख-सम्पत्ति देता है। सदाचार से ही यश बढ़ता है और आयु बढ़ती है। सदाचार धारण करने से सब प्रकार की कुरूपता का नाश होता है।’’

सदाचार हमें विरासत में मिला है। सदाचार सीखने के लिए किसी स्कूल या धर्मगुरू के पास जाना नहीं पड़ता। यह तो हमारे पूर्वजों की सैकड़ों वर्षों की जमा पूँजी है। किसे नहीं पता कि बड़ों का सम्मान करें, झूठ न बोलें, चोरी न करें, दूसरों का अपमान न करें, पराई स्त्री पर नज़र न रखें। ये सभी सदाचार के गुण ही तो हैं। हम सभी कहेंगे यह सब तो हमें पहले से ही मालूम है। फिर भी आज के समय में लोग सदाचार सीखने के लिए पैसे खर्च कर रहे हैं। यह बात अलग है कि सदाचार सिखाने वाले लोग कितने सदाचारी हैं, कहना थोडा मुश्किल है। आजकल सदाचार सिखाने के लिए बक़ायदा फीस वसूली जाती है। कहने का मतलब यह है कि इन्ही पैसों से सदाचारी गुरूओं, बाबाओं ने खुद के आलीशान बंगलें बनाये हैं। ये धर्मगुरू और बाबा हवाई जहाज से नीचे पैर नहीं रखते। ये बिना एयर कंडिशन वाली गाड़ी में बैठ नहीं सकते। इनके हर देश में आश्रम हैं। इनके साधारण बैंकों से लेकर स्वीज् बैंकों तक एकाउंट्स हैं। ऐसे लोग साधारण जनता को सदाचार का पाठ पढ़ा रहे हैं। उन्हें तो पता है कि हमारा देश हो या विश्व का कोई दूसरा देश उल्लुओं की कमी है नहीं।

सदाचार के पाठ में ही सिखाया जाता है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ विचार पनपते हैं। हमारे जीवन में स्वास्थ्य का क्या महत्व है। यह सभी को भलीभांति पता है कि आज इस प्रदूषण भरी जिं़दगी में अक्सर लोग बीमार रहते हैं। कोई ही ऐसा होगा जो यह कहेगा कि हम स्वस्थ हैं, हमें कोई बीमारी नहीं है। नहीं तो ज्यादातर लोग किसी न किसी तरह की बीमारी का रोना रोते रहते हंै।

इन सभी चीजों पर गौर करने के बाद अब बारी धन की आती है। इस समय धन का ही अधिक महत्व है। बिना धन के न तो सदाचार सीखा जा सकता है और न ही बिना धन के मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक से रह सकता है। आज के युग में मानव ने अपनी आवश्यकताओं को इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसे किसी भी प्रकार से धन चाहिए। धन कमाने के लिए मनुष्य सदाचार को ताख पर रख देता है। आज के मानव की मानवता का मापदंड सदाचार नहीं वरन धन है। आज के समय में निर्धनता सब प्रकार की विपत्तियों का मूल कारण है। श्री ठाकुरदत्त जी ने लिखा है-निर्धन मनुष्य जब अपनी रूचि और मर्यादा के अनुकूल कार्य नहीं कर पाता, तो उसे लज्जा का अनुभव होता है, लज्जा के कारण वह तेज से हीन हो जाता है। तेज से हीन हो जाने पर उसका पराभव होता है। पराभव होने पर उसे ग्लानि होती है। ग्लानि के बाद बुद्धि का नाश होता है। और उसके बाद वह क्षय को प्राप्त हो जाता है।

इस विषय पर जितना लिखा जाय कम ही है। यदि सदाचार पर आप पढ़ना चाहे तो हजारों हजार किताबें पढ़ने को मिल जायेंगी। स्वास्थ्य पर दिनों-दिन रिसर्च हो रहे हैं। बीमारी को दूर भगाने की नयी-नयी तकनीकों को ईजाद किया जा रहा है। इसी तरह बीमारियां भी नयी-नयी पनप रहीं हैं। और अंत में कहा जाय तो धन पर लिखना तो एक प्रकार का धन की बर्रादी ही होगी। धन, धान्य से परिपूर्ण है।

Thursday, November 20, 2008

गरीबों को लूटना आसान है....


सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे लेकिन है कुछ हद तक सच ही। गरीबों को लूटने का धंधा हर जगह हो रहा है, चौराहे से लेकर चहारदीवारी तक उनको लूटा जा रहा है। अक्सर देखा जाता है कि चौराहा पर सामान बेंचने वाले बच्चों का सामान पुलिस छीन लेती है। क्या इस जबरदस्ती सामान छीनने को लूटना कहना गलत है?

गरीबों को लूटना इसलिए भी आसान है, क्योंकि उनके मामले कहीं दर्ज नहीं होते, उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में डर लगता है। मीडिया भी उनकी खबरे छापने से कतराता है। हां कभी-कभार छुटपुट खबरें तो जरूर छप जाती हैं, मगर दूसरे ही दिन लोग उन खबरों को भूल जाते हैं।

पहले के समय में ऐसा सुनने में आता है कि गांवों में जमींदार लोग गरीबों लूटते थे। वह लूट भंयकर लूट होती थी। वे गरीबों के माल-असबाब के अलावा उनकी स्त्रियों की आबरू लूटने में भी नहीं हिचकिचाते थे। सुनने में तो यहां तक आता है कि उस समय की लूट में महिलाओं के अलावा उनके बच्चे भी शामिल होते थे। लुटेरे जमींदार गरीबों के बच्चों कों जबरन काम पर लगाते थे। और उन्हें लूटने के अलावा उनके साथ घृणित व्यवहार भी किये जाते थे। मारपीट तो आम बात थी, यहां तक कि उनको जानवरों के साथ बाड़े में बंद कर दिया जाता था। कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नहीं दिया जाता था। वे अपने परिवार के साथ सामाजिक समारोहो के अलावा धार्मिक त्यौहार भी नहीं मना सकते थे। उस लूट को सुनकर कलेजा कांप जाता है।

आजकल की लूट-खसोट में भी गरीब तबका ही परेशान है। इस लूट को भी पुराने समय की लूटों से कम नहीं आंका जाना चाहिए। इस समय की लूटो में आदमी से अपने आप को लुटने के लिए कहा जाता है। कई बार तो आदमी मजबूरी में लुट जाता है। रिश्वतखोरी और ठगी का धंधा अब ज्यादा प्रचलित है। यह भी एक तरह की लूट है। छोटे-से छोटे काम को कराने के लिए रि’वत देनी पड़ती है। कभी कभी तो सही काम कराने तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। और इस रि’वर को लेने वाले लोग बड़े साहब होते हैं।

अब के समय में जिले स्तर की कोर्ट कचहरियों में गरीबों को वकील और उनके मुहर्रिर लूटते नजर आ जाते हैं। वकील लोग इन गरीबो के मुकदमों को लम्बा खींचते हैं ताकि मरते दम तक यह वकील की फीस देता रहे। अमीर का वह अधिक फीस और रि’वत देकर मामला जल्दी से जल्दी रफा-दफा करवा लेता है।

सफर में भी भारतीय रेलों में भी गरीबों को लूटने की घटनाएं अमीरों की तुलना में ज्यादा हैं। गरीब लोग काम काज की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं इसलिए उन्हें सफर करना पड़ता है। रेलवे के साधारण डिब्बे में सफर करने वाले ज्यादातर लोग करीब होते हैं। अक्सर देखा गया है कि उन गरीबों को लूटने के लिए रेल के डिब्बे तक में आ जाते हैं। रेलवे की इस लूट के संदर्भ में हम दो शताब्दी पूर्व के ठगों को याद करें, तो इस कृत्य में अपनी महान परंपरा की झलक पा सकते हैं। बंटमारी की परंपरा तो पाषाण काल तक जाती है, लेकिन मध्य काल में भारत, विशेष रूप से मध्य देश में ठगों का जैसा विकसित तंत्र था, उसकी मिसाल दुनिया भर में कहीं नहीं मिलती। ये लोग अपने समय के सबसे क्रूर हत्यारे थे, जो राहगीरों की हत्या किए बगैर सामान लूटने में यकीन नहीं करते थे।

अब की लूट तो ऐसी है कि छोटे-छोटे देश जो गरीब हैं, वो भी विकसित देशों द्वारा लूटे जा रहे हैं। उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर लूटा जा रहा है। भूमण्डलीकरण इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। इस लूट में किसान, बुनकर, हथकरघा उद्योग में लगे कामगार और छोटे-छोटे उद्योग जो गावों में चल रहे हैं, शामिल हैं।

Tuesday, November 18, 2008

कभी घी घणा, कभी गुड़ चना कभी वो भी मना

अभी ज्यादा समय नहीं हुआ। बात तब की है जब हम बच्चे थे। उस समय हमारे गांव में बर्फ बेंचने वाला (शहरी भाषा में इसे आइस्क्रीम कहते हैं) आया करता था। उसका एक तकिया कलाम था या कहे उसकी एक मार्केटिंग की भाषा थी - अठन्नी का मजा चवन्नी में। यानी पचास पैसे वाला बर्फ केवल पच्चीस पैसे में और मजा पचास पैसे वाला। आज इस बढ़ती हुए मंहगाई को देखकर उसकी याद बरबस ताजा हो जाती है।

इस वर्ष जो मंहगाई आयी है वो पुराने समय में आने वाली महामारी की तरह की है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। हर जगह बस हो या ट्रेन,आफिस हो या घर बस महंगाई ही चर्चा का विषय है। इसी पर बहस छिड़ी हुई है। हर कोई यह जानना चाहता है कि चीजों के दाम बढ़ेंगे या घटेंगे। कम पढ़े लिखे लोग तो इसी से हैरान हैं कि आखिर सारा पैसा गया हो गया कंहा?

इस बार की मंहगाई में चीजों के दाम इतने बढ़ गये हैं कि धनी वर्ग भी परेशान दिखाई दे रहा है। गरीब तो पहले से ही त्रस्त हैं उनके लिए तो पहले ही रोजी-रोटी का जुगाड़ जुटाना मुश्किल था। अब तो और भी मुश्किल है। कहा जाय तो उनके लिए यह मंहगायी केवल खाने-पीने और रोजमर्रा की वस्तुओं तक ही सीमिति है। कार खरीदना या घर बनवाना तो उसके लिए पहले की तरह सपना ही है। इस बार देखा गया है कि इस मंहगाई से धनी वर्ग को कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो रही है। इन दिनों उसे अपने विलासिता के संसाधनों की कटौती जो करनी पड़ रही है। उसे अपने कार की ईएमआई की चिन्ता के अलावा पीजा या बर्गर न खा पाने की चिंता भी है। उसने हवाई यात्राओं में कटौती की है। क्लबों और होटलों में खाना छोड़कर घर की बाई का बनाया खाना खाना शुरू किया है। ताकि इस बढ़ती हुई मंहगाई को हंसते-हंसते झेल सकें।

इस बढ़ती हुई मंहगाई को इस बार अमीर देश भी झेल नहीं सके। उनकी हालत तो हम जेसै देश (विकास विकासशील देश) की तुलना और भी खस्ता हाल हुई है। इन अमीर देश के कितने ही धनवान दीवालियापन के शिकार हो गये हैं। बड़े-बड़े उद्योग धंधे चौपट हो गये हैं। उनके शेयर बाजार ठेर हो गये हैं। जिसका नतीजा यह हुआ कि कितने ही लोग बेरोजगार हो गये। कहा जाय तो उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी।

हाय मंहगाई! हाय मंहगाई का शोर चारों ओर सुनाई दे रहा है। ज्यादातर लोग मान रहे हैं कि इस बढ़ती हुई मंहगाई का मूल कारण शेयर बाजार हैं। कारण जो भी हों इस बढ़ती हुई मंहगाई ने क्या गरीब वर्ग क्या अमीर सभी को प्रभावित किया है। कहें तो आम आदमी से लेकर धनी वर्ग सभी परेशान हैं। सभी की थाली का खाना पहले की तुलना में उतना स्वादिस्ट नहीं रहा जितना कि इस बढ़ती मंहगाई से पहले था। बड़े बुजुर्ग सही ही कह गये हैं-कभी गुड़ चना, कभी घी घना कभी वो भी मना।

Monday, November 17, 2008

यहां धू्रमपान मना है.......

ध्रूमपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अच्छी बात है। अखबार इन खबरों से पटे पड़े हैं। यह बात अलग है कि इन खबरों को छापने वाले ज्यादातर लोग ध्रूमपान करते ही हैं क्योंकि

कहा जाता है कि ध्रूमपान लेखक के लेखन में टानिक का काम करती है। पता नहीं यह बात कहां तक सत्य है और इस बात में कितना दम है लेकिन मीडिया के ज्यादातर लोग ध्रूमपान करते देखे या पाये जाते हैं।

सार्वजनिक जगहों पर बीड़ी, सिगरेट, शराब और ध्रूमपान सबंधी अन्य सभी क्रियाओं पर पहले से ही रोक लगी थी। बावजूद इसके लोग सार्वजनिक जगहों पर खुल्मखुल्ला ध्रूमपान करते हैं। इसलिए इस वर्ष 2 अक्तूबर से इस पर आर्थिक दण्ड बढ़ाकर 200 रूपये कर दिया गया। इस आर्थिक दण्ड को दोगुना इस उम्मीद से किया गया कि ध्रूमपान निरोधक कानूनों का कड़ाई से पालन होगा।

इस बार जुर्माने के साथ और भी कई नियम जुड़ गये हैं जिसमें प्राइवेट आफिस में भी धू्रमपान प्रतिबंधित है। पहले केवल सरकारी आफिसों में ऐसे कानून लागू थे लेकिन इन कानूनों के बावजूद सरकारी कार्यालयों की दीवारें पान और तमाकू की पीक से तो यही बयान करने थे उन पर इन कानूनों क्या असर था। नये नियम के मुताबिक अब प्राइवेट कम्पनियों के ऑफिसों में भी ध्रूमपान मना है इससे इन कम्पनियों में धू्रमपान करने के लिए धू्रमपान रूम अलग से बनाये जा रहे हैं।

इस कानून को लागू होने से पहले ही अखबार और मीडिया में इस खबर को छापने और दिखाने की होड़ सी लगी हुई थी। अब जब यह कानून लागू हो गया है तब तो विज्ञापन के अलावा बड़े-बड़े होर्डिंग भी लगाये जा रहे हैं। इन होर्डिंग में जुर्माने की ख़बर के अलावा संबंधित विभाग के आला अफसरों की फोटो भी दिखाई दे रही हैं। अब इन खबरों का इस ध्रूमपान निरोधक कानून पर कितना असर पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा अभी तो यही देखा जा रहा है कि इस नये कानून को लेकर सिगरेट पीने वाले कस लेकर धुंए की तरह उड़ा रहे हैं।

कहते हैं कि सिगरेट पीने वाले ज्यादातर पुरूष हैं। लेकिन पूरी तरह यह कहना कि महिलाएं इससे अछूते हैं गलत होगा। बदलते हुए जमाने जहां महिलाएं पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। वहीं वे ध्रूमपान को भी अपने बराबरी का अधिकार मानती हैं। जब पुरूष ध्रूमपान कर सकता है तो महिला क्यों नहीं, बात भी सच है कि वो क्या किसी से कम हैं। हालांकि मीडिया महिलाओं के ध्रूमपान करने से जो बीमारियां होती हैं उनकी दुहाई देकर उसे रोकने के लिए बराबर दबाव बनाता रहता है। इन खबरों के अनुसार महिलाओं के ध्रूमपान करने से उनके गर्भधारण के दौरान बच्चे के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है तथा स्तन कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां भी होती है, बताता रहता है।

महिलाएं किस तरह सिगरेट की शौकीन बन गयी हैं इसका एक ज्वलंत उदाहरण मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। दिल्ली की बस में मैं सफर कर रहा था, बस में एक व्यक्ति सिगरेट पी रहा था। लोगों ने उसे पीने से मना किया, उसे डराया-थमकाया। लेकिन वह व्यक्ति नहीं माना। हार कर किसी ने सामने बैठी एक महिला की दुहाही देते हुए मना किया। युवक ने सिगरेट फेंक दी। अब क्या, देखते हैं कि वही माताजी जिनकी दुहाई देकर युवक ने सिगरेट फेंकी थी, ने सिगरेट सुलगा ली। तो यह है बात कि किस तरह महिलाएं पुरूष की ध्रूमपान में बराबरी कर रही हैं।

डॉक्टर कहते हैं कि स्वास्थ्य पर सबसे बुरा असर ध्रूमपान करने से होता है। इसको देखते हुए सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन समय-समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहते हैं। इन रिपोर्टों के अनुसार इतने सारे उपायो और कानूनों के बावजूद न तो सिगरेट पीने वाले कम हुए हैं और न ही अन्य किसी भी तरह का ध्रूमपान कर हुआ है। बावजूद इसके सिगरेट पीने वालों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ इसकी बिक्री की ब्राचें अब और भी बढ़ गयी हैं। जहां तक सवाल है इस नये कानून को लागू करने से तो अब भी दिल्ली के बस स्डैण्डों पर लोग सिगरेट पीते खुले आम देखे जा सकते हैं। बल्कि बसों के ड्राइवर तक ने सिगरेट पीते हुए बस चलाना अभी जारी रखा है।

बात चाहे जो भी हो इसमें जरा भी संकोच नहीं है कि इतने सारे नियम, कानून और स्वास्थ्य पर इसके बुरे असर को जानते हुए भी ध्रूमपान करने वाले कम हुए हैं कहना गलत होगा। डब्ल्यू.एच.ओ की एक रिपोर्ट अनुसार ध्रूमपान करने वालों की संख्या पहले से कहीं अधिक हो गयी है। तथ्य तो और भी चौंकाने वाले हैं कि जहां पहले महिलाओं की संख्या कम थी अब बढ़कर दुगनी हो गयी है। इस ध्रूमपान को कम करने के उपयों पर आपके सुझावों का हमें इंतजार है ताकि उस पर चर्चा की जा सके।

सिगरेट पीना जुर्म है यह सबको मालूम

सिगरेट पीना जुर्म है यह सबको मालूम
जुरमाना भी बढ़ गया है भी है मालूम
किंतु न सिगरेट छूटती कैसे होय उपाय
किसी तरह सिगरेट पियें जुरमाना बच जाय
जुरमाना बच जाय और सिगरेट पी जाए
साम दाम और दंड भेद के तीनो हुए उपाय
ध्रूमपान न कम हुआ भया समाज निरुपाय
भया समाज निरुपाय बात है बड़ी निराली
पहले तो सफ़ेद मिलाती थी अब मिलाती है काली
अब तो मिलाती काली 'शिशु' इसमे न शक है
साम दाम और दंड भेद के प्रयास हुए भरसक हैं.

Wednesday, November 12, 2008

आलोचनाओं से सबक मिलता है


इसमें संदेह नहीं है कि आलोचना किसी के लिए नुकसान देय है। इसीलिए कबीर दास जी ने भी कहा था-‘‘निंदक नियरे राखिये’। लेकिन यहां यह भी सत्य है कि यदि वही आलोचना किसी बैर भाव, उपहास और जानकारी के अभाव में की गयी है तो वह आलोचना आलोचक के लिए भी आलोचना बन जाती है। कहा तो यहां तक जाता है कि आलोचक ही सबसे बड़े प्रसंसक होते हैं। है कोई इसका जवाब? आपका जवाब आयेगा नहीं है इसका कोई जवाब।

मैंने अपना ब्लॉग लिखना अभी-अभी शुरू किया है। मतलब यह कि मैं अभी इस लाइन में नौसिखिया हूं। लोग पूछते हैं तुम्हारे ब्लॉग का उद्दे’य क्या है? तब मैं निरूत्तर हो जाता हूं। क्योंकि ब्लॉग लिखते समय मैंने यह सोचा ही नहीं था कि इसका होगा क्या। हां बात यह थी कि मन में कुछ उथल-पुथल मच रही थी उसे लिख डाला। अकेला जो था उस समय। सो उस समय मन में जो आया उसी की नकल बस ब्लॉग में उतार दी। कहने का मतलब यह है कि मेरा ब्लाग मेरे दिमाग की नकल है और कुछ नहीं।

मुझ जैसे नौसिखिया ब्लॉगर के लिए जब प्रसंसाएं मिलती हैं तो मन बाग-बाग हो जाता है।आलोचनाओं के लिए मैं अभी तैयार नहीं हूं। इसलिए आलोचनाएं मिलने पर मन को बहुत कष्ट होता है। इन्हीं आलोचनाओं के चलते ही मैने अपने ब्लॉग का नाम नजर नजर का फेर रखा। यह बात अलग है कि अब तक मिली हर आलोचना पर मैने गौर किया है उसे समझा है और अमल में भी लिया है।

आलोचनाओं से सबक मिलता है। आगे से मैं अपने लेख में उसका ध्यान रखता हूं। अभी की बात है मेरा लेख था ‘हमारा हीरा रोबोट हीरा है’ उस पर एक प्रसिद्ध आलोचक और ब्लॉग जगत के मशहूर लेखक एवं कवि श्री साधक जी की आलोचना कुछ इस प्रकार आयी-
भरा संवेदन दीखता कैसे कहें रोबोट
हीरा है यह आदमी ना बोलें
ना बोले रोबोट स्वयं की सीमा जाने
अपना काम करने पूरा, आलस ना जाने
कह साधक कवि, हम करते भावों का वेदन
कैसे कहें रोबोट दीखता भरा संवेदन।।

इसी तरह और भी आलोचनाएं आयी हैं जिनका विवरण शायद मेरे बूते की बात नहीं। हां उन पर गौर जरूर मैने किया है और उसके द्वारा अपने लेख को सुधारा भी है।

वहीं दूसरी तरफ कुछ एक कमेंटस ऐसी भी हैं जो लिखित तो नहीं हैं, लेकिन हैं कमेंट्स हीं, वह हैं हमारे सहकर्मियों की जो आहे-बगाहे मेरे ब्लॉग को देखते हैं। मैं यहां पर उनका नाम नहीं देना चाहता। वह खुद ही पढ़कर जान जायेंगे कि मैं किसके बारे में लिख रहा हूँ । ऐसे लोग एक-आध ही हैं। उन पर कबीर दास जी का यह दोहा क्या सटीक बैठता है-
कबिरा इस संसार में घणें मनुष मतिहीन।
राम राम जाने नहीं आये टोपादीन।।

अरे यह क्या मैं भी आलोचना करने लगा। यह ठीक नहीं है मेरे लिए।

Tuesday, November 11, 2008

नौकरी के नौ काम दसवां काम हाँ हजूरी


नौकरी के नौ काम दसवां काम हाँ हजूरी
फिर भी मिलती नही मजूरी
पूरी मिलती नही मजूरी
जीना भी तो बहुत जरूरी
इसीलिये कहते हैं भइया
कम करो बस यही जरूरी

घंटे आठ काम के होते
दो घंटे का आना-जाना
इसी तरह बारह हो जाते
इसको सबने ही है माना

कहने को हम बड़े काम के
फिर भी तो छुट्टी हो जाती
एक बात का और भी गम है
छुट्टी सारी ही कट जाती

कल क्या होगा किसने देखा
आज की बात अभी करते हैं
काम नही होता है जब भी
एक ब्लॉग यूँ ही लिखते हैं

बात लिखी है अभी अधूरी
पढ़कर कर तुम कर दोगे पूरी
ऐसा है विश्वास हमारा
यह नेता का नही है नारा

हिन्दी और बिंदी का क्या कभी लगाओ कभी उतारो


हिन्दी और बिंदी का क्या कभी लगाओ कभी उतारो
हिन्दी भासी और औरत को मिले वहीं पर मारो
हाय यही हो रहा देश में किसको कान्हा पुकारूँ
क्या यह देख खुदही की चाँद पे सौ सौ चप्पल मारूं
हिन्दी और औरतों पर हो रहे अत्याचार
नही समय अब भी बदला है यह कहते अखबार
यह कहते अखबार बात तुम मेरी मानों
कहते हैं 'शिशुपाल' आज हिन्दी को जानो
और औरतों की महिमा को तुम पह्चाओ।

हमारा हीरा, रोबोट हीरा है


लीजिये हीरा रोबोट बन गया। इससे पहले की आप हीरा रोबोट की कहानी पढ़े हीरा के बारे में जान लेना आवश्यक है. हमारा हीरा कोई मूल्यवान आभूषण न होकर एक आम इंसान है, नही, एक खास इंसान है. दरअसल उसका नाम हीरा है और वह एक इंसान है इसलिए हम इस हीरा की बात करेंगे न की उस हीरा है.

हीरा हमारे ऑफिस का सहकर्मी है। जो हमारे साथ काम करते हुए भी हमारा नही है. बात यह है की हीरा की कंपनी ने हमें यह हीरा दिया. हीरा की कंपनी ने हमें सपोर्ट स्टाफ और ऑफिस के लिए जगह मुहैया कराई है.

हीरा से मेरी पहली मुलाकात इस वर्ष फरवरी महीने के दूसरे सप्ताह में हुई थी। यहाँ हम हीरा के मूल निवास का जिक्र नही करेंगे क्योंकि उससे इंसान की पहचान करना इंसानियत नही। ऐसा मैं नही बल्कि विद्वान लोग कहते हैं। और मैं कोई विद्वान तो हूँ नही। ऐसा कहते हैं देश और समाज को चलाने वाले। खैर छोडिये इस बहस को और आइये कहानी पर गौर करें.

हम बात कर रहें हैं की हीरा हीरा न होकर रोबोट कैसे है। इस पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे. बात यह है की हमारा हीरा ऑफिस के सभी कर्मचारियों का सामान रूप से सम्मान करता है उसकी नजर में रजा और रंक वाली भावना नही है. वह ऑफिस में अधिकारीयों से लेकर कमचारियों तक सभी का काम करता है. वह हर किसी के आर्डर को गंभीरता से लेता है. हमारा हीरा सभी की बात को सुनता, समझता और उसका पालन करता. हीरा बैंक के काम से लेकर ऑफिस स्टाफ के लिए सिगरेट लाना, खाना लाना, डस्टिंग करना चाय देना. आदि सभी प्रकार के काम करता है. मैंने हीरा को कभी भी काम से जी चुराते नही देखा. फिर चाहे कोई काम हो हीरा कभी न नही करता. भले ही हीरा को उस काम की जानकारी हो या न हो.

हमारे हीरा की जान पहचान भी कम नही है। किसी भी बैंक में का नाम लीजिये हीरा का कोई न कोई न कोई उस बैंक में होगा ही. हीरा किसी को भी शिकायत का मौका नही देता. हीरा की सबसे बड़ी खूबी यह है की हीरा समय का बहुत पाबन्द है. हीरा का ऑफिस टाइम जैसे ही खत्म हुआ समझो हमारा हीरा अपने घर का हीरा हो जाता है.

अमूमन चार बजे के चाय हीरा है सबको देता है। बस चाय के कप ट्रे में रखे और चल पड़ा. चाय में चीनी कम है या चाय अच्छी नही बनी इससे हीरा को कुछ लेना देना नही है. वह तो साफ़ कहता है साहब चाय में कोई शिकायत है को किचन में बात कीजिये. हमारा काम चाय देना है चाय बनाना नही. बात भी तो हीरा की ठीक है क्यूँ सुनेगा भला वो किसी की. यह काम हीरा को कोई है.

हीरा के इन्ही गुणों के कारण हम कभी कभी उसे रोबोट कहते हैं. जन्हातक मेरी समझ है रोबोट का भी काम कुछ ऐसा ही होता होगा. लेकिन नही हमारा हीरा हीरा है रोबोट नही. तुलसी बाबा के वचन हमारे हीरा पर क्या खूब बैठते हैं. -
सूधा मन, सूधे वचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधे सकल विधि रघुवर प्रेम प्रसूदि।।

तो अबसे हम हीरा को हमारा हीरा, रोबोट हीरा है कहेंगे।

Monday, November 10, 2008

भारतीय रेल

भारतीय रेल की पूरी आमदनी का 70 प्रतिशत माल ढुलाई से आता है। सवारी गाड़ियाँ आमतौर पर घाटे पर चलती है। माल ढुलाई के आय से सवारी गाड़ियों की घाटे की भारपाई होती है। हाल में ही ‘कन्टेनर राजधानी’ शुरू किया गया। यह खाने पीने की जरूरी चिजों की ढुलाई करता है। यह गाड़ी 1 घंटे में 100 किलोमीटर चलती है।

दार्जलिंग हिमालयन रेलवे दुनिया भर के लिए दर्शनिये है। यह ट्रेन अभी भाप के इंजन से चलती है। इसे वल्र्ड हेरिटेजसाइट का दर्जा दिया है। यह सिलीगोड़ी से दार्जलिंग के बीच पहाड़ी रास्तो पर 2134 किलोमीटर चलती है। यह सबसे ऊपर का स्टेशन घुम है।

नीलगिरि माऊन्टेन रेलवे दक्षिण भारत के नीलगिरि हिल्स में चलती है। इसे भी वल्र्ड हेरिटेजारइट के अन्दर रखा है।

तीसरा हेरिटेजसाइट है मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनश। पहले इसे विक्टोरिया टर्मिनश के नाम से जाना जाता था। पर ये भारतीय रेल के अन्दर ही आता है।

पैलेस और विल्स भाप इंजन से चलने वाली विशेष ट्रेन है। यह राज्यस्थान में टुरिज्म को बढ़ावा देने के लिए बनायी गई है।

महाराष्ट्र सरकार ने भी कॉन्कन रूट पर डेकन व्क्ब् चलायी। पर इसे पैलेस ऑन हिल्स जैसी सफलता नहीं मिली। समझौता एक्सप्रेस भारत से पाकिस्तान जाती है। कुछ कारणों से 2001 में बंद कर दिया गया था। 2004 से फिर चलने लगा है।

पाकिस्तान के खोखड़ा पार और भारत के मून्नाबाव तक थार एक्सप्रेस चलती है। 1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद इसे बंद कर दिया गया था। 18 फरवरी 2006 को इसे फिर से शुरू किया गया।

कालका शिमला रेलवे का नाम गिनिज ऑफ वल्र्ड रिकार्ड । वह ढलान पर चढ़ती हुई 96 किलोमीटर की ऊँचाई पर जाती है।

लाइफ लाइन एक्सप्रेस को आम तौर पर हॉसपीटल ऑन विल्स के नाम से जाना जाता है। यह ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ सेवायें प्रदान करती है। इसमें एक ऑपरेशन रूम होता है, एक स्टोर रूम होता है। इसके अलवा रोगियों के लिए दो और वार्ड होते हैं। यह ट्रेन देश भर में विभिन्न स्थानों पर रूक-रूक घुमती है।

रेलवे स्टेशनों में सबसे छोटा नाम इब है। और सबसे लम्बा नाम है- श्री वेंकटानरसिंहाराजूवारिया पेटा।

हिम सागर एक्सप्रेस सबसे लम्बा रूट तय करती है। यह कन्या कुमारी और जम्मूतवी के बीच चलती है। यह ट्रेन 3745 किलोमीटर (2327 मील) का सफर 74 घंटे और 55 मिनट में तय करती है।

बिना रूके सबसे लम्बा सफर तय करने वाली ट्रेन है त्रिवेंद्ररम राजधानी यह ट्रेन दिल्ली के निशामुद्दीन रेलवे और त्रिवेंद्ररम के बिच चलती है। यह ट्रेन बड़ौदा और कोटा के बीच बिना रूके चलती है।

भारतीय रेल की सबसे तेल गति से चलने वाली यात्री गाड़ी है भोपाल शताब्दी एक्सप्रेस। फरीदाबाद और आगरा के बीच यह गाड़ी 140 किलोमीटर प्रतिघंटा के हिसाब से चलती है। सन् 2000 में जब इसका टेस्ट हुआ था तब इसे 144 किलोमीटर प्रतिघंटे के हिसाब से चलाया गया था। फिर भी यह दुनिया के सबसे तेज चलने वाले गाड़ियों के मुकाबले सबसे कम है।

Friday, November 7, 2008

यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे .....


हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट जी ने नीचपन की एक बहुत अच्छी परिभाषा दी है-‘‘नीचता वहीं बसती है जहां प्रत्यक्ष में ऊंचाई है।’’ बात सौ आने सही है। क्योंकि इसी नीचता से ही ऊंच-नीच शब्द की उत्पत्ति हुई है। गांवों में बाल विवाह के लिए एक दलील दी जाती थी कि लड़कियों के साथ कोई ऊँच-नीच न हो जाये इसलिए उनकी शादी जल्दी करना ठीक होगा। कहा जाता है कि नीचता के कारण आदमी मुंह दिखाने तक के लायक नहीं रह जाता।

एक सार्वभौमिक सत्य यह भी है कि जहां ऊंचाई है वहीं नीचाई है। अमीरी और गरीबी भी इसी के पर्याय हैं। मतलब अमीर ऊंचे हैं और गरीब नीचे हैं। इसलिए अमीर की नजर में गरीब नीच होते हैं। इसी प्रकार असभ्य के लिए भी नीच शब्द का प्रयोग किया जाता है। यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे।

आज समाज के चलन में अनुसार ऊँच-नीच का भेद ऐसा चल पड़ा है कि अब उसमें जौ मात्र भी अदल-बदल हो पाना सम्भव नहीं। कहा जाय तो नीच एक प्रकार से गाली बन गया है जैसे राज ठाकरे की नजर में बिहारी नीच हैं और महाराष्ट्रिय ऊंचे हैं। लेकिन बिहारियों और उत्तर भारतियों की नजर में राज ठाकरे नीचता का काम कर रहे हैं। इसलिए राज ठाकरे नीच हैं। खैर इसमें पड़कर समय गंवाना भी नीचता है जैसे कि आजकल इस विषय पर देश के नेता कर रहे हैं।

कहते हैं कि किसी भी गलत काम करने वाले को भी नीच कहा जाता है। होता यह है कि जिसने नीच कहा वह अपने को ऊंचा समझता है। कभी-कभी व्यक्ति नीचता की हद पार कर जाता है। तब उसे नीचपन कहते हैं। नीचपन किसी भी दूसरे योनि के प्रणियों के लिए नहीं वरन मनुष्य मात्र के लिए ही बना है। ऊंची दुकान फीके पकवान भी इसी से बना होगा।

रूपया ऊंच-नीच की भरपूर कसौटी है। जिसने भी रूपये को लात मारकर प्रतिष्ठा का आदर किया वह ऊंचा है और जो रूपये के पीछे पड़कर अपने परिवार, समाज और देश का अहित करता है वह नीच है। ऐसे ही धर्म के लिए भी बोला जाता है जो अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्म के लोगों की भलाई करता है वह ऊंचा है और जो अपने धर्म के लाभ के लिए दूसरे धर्मों को हानि पहुंचाता है वह नीच है। ऐसा अभी हाल ही में उड़ीसा में देखने को मिला।

इसी नीचता पर गोस्वामी तुलसीदास ने कई सारी चौपाइयों का निमार्ण किया देखिये-‘‘नीच निचाई नहिं तजें जो पावे सतसंग’’ (इसका अर्थ है कि नीच मनुष्य अपनी नीचता से बाज नहीं आता चाहे कितनी ही अच्छी संगति में रहता हो)। एक जगह तुलसीदास ने यहां तक कहा कि ‘नवनि नीच के अति दुखदाई, जिमि अकुंस घनु उरग, बिलाई’’ इसका अर्थ यह है कि नीच यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इससे बहुत डर की बात समझना चाहिए। फिर दुबारा एक जगह उन्होंने ऐसा भी कहा है कि ‘‘सठ सुधरइं सतसंगत पाई’’ (सठ यानी नीच क्योंकि मूर्ख व्यक्ति विद्वानों की नजर में नीच होते हैं) इस उपयरोक्त चौपाई का अर्थ है- नीच को नीचता त्यागने के लिए उच्च विचार वाले लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए।

बात सीधी सी एक है कि नीचता कैसी भी हो नीचता ही रहेगी। इसलिए हे मानुष नीचता को छोड़कर ऊंचे उठो। इसे मराठी में कहें तो कुछ ऐसा है-‘‘म्हसून हे माणसांनो नीच ला सोडून वर उठा।’’

Thursday, November 6, 2008

हम, तुम सबमे अच्छे

आप
दोमुंहा सांप
वो सब अक्ल के कच्चे
हम, तुम सबमे अच्छे
तुम सब गधे के पूत
हमीं स्वर्ग के दूत

यही इस समय चल रहा है
पता है इसलिए कि चुनाव का बिगुल बज रहा है

आरोप - प्रत्यारोप के बाण चल रहे हैं,
युध कि तरह चुनाव के ऐलान हो रहे हैं!

अदला बदली तो हमारा गहना है
यह मेरा नही उनका कहना है

पुराने सारे नारे नए में बदल गए
भाजपा के प्रत्यासी बसपा में चले गए

"तिलक तराजू और तलवार उनके मारो जूते चार" कि जगह अब
हाथी नही गणेश है ब्रम्हा विष्णु महेश है,

सौदा पटा तो भी टिकेट कटा नही पटा तो भी टिकेट कटा
हर रोज यही ख़बर है कि उसकी जगह कोई दूसरा प्रत्यासी डटा

घोषणा पत्र को चुनावी एजेंडा कहा जाता है
यही घर घर जाकर हर एक को थमाया जाता है

हरिजन के पैर कोई ब्राम्हण छु गया
राम राम कि जगह जय भीम कह गया

चलो इसी बहाने छुआ - छूत् मिट गया
अपराधी कलुआ इसी से खुश है उसे कोई दूत मिला गया

हमें क्या? हम तो जनता हैं
हमारे साथ सब कुछ यूँही चलता है

भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहें....


इसमें किंचित संदेह नहीं कि पहले की तुलना में अब महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। पहले के समय में महिलाएं घर की चहारदीवारी से बाहर कदम नहीं रख सकती थीं। उन पर पहरा था। भारतीय कानून की धाराओं की तरह उन पर कई तरह की प्रथाएं लागू थीं। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, दहेज प्रथा आदि इसी प्रकार की कई अन्य प्रथाएं इन महिलाओं के लिए ही बनी थीं। इतना ही नहीं उनके पहनावे भी अजीब थे। वे बिना पर्दे के पराये पुरूष के सामने नहीं लायी जाती थीं। पुरानी कहावत ‘औरतों का गहना लज्जा है’ उसी समय की है।

जैसा कि कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है तो अब इस बदलते हुए हालातों में महिलाओं के हालात भी बदले हैं। आज महिला सशक्तिकरण का दौर है। महिलाएं अब पहले की तुलना में काफी आगे आयी हैं। शिक्षा से लेकर नौकरी-पेशे तक उनकी पहुंच है। समाज के किसी भी समारोह में उनकी अगुवाई है। अब स्त्रियांे के आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर होने की स्थिति में पिछले कुछ दशकों में भी तेजी से कमी आई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पहले रोजगार के हर क्षेत्र में पुरूषों का वर्चस्व था, पर अब ऐसा नहीं है।

जाहिर सी बात है इतने सारे बदलावों के चलते उनके पहनावे में भी पहले की तुलना में काफी बदलाव आया है। वही महिलाएं अब सुन्दर दिखने के लिए मंहगे से मंहगे संसाधन प्रयोग में ला रही हैं। ऐसे में अब सुन्दरता की परिभाषा भी बदली है। अंग्रेजी भाषा में सुन्दर को ब्यूटीफुल या स्मार्ट कहा जाता है। पहले के समय हम सुन्दर के लिए इसी ब्यूटीफुल शब्द का प्रयोग करते थे। लेकिन अब इसी ब्यूटीफुल को सेक्सी कहा जाता है।

सुन्दरता के बदलते हुए इस स्वरूप को आज की उभरती हुई नारी को अपनाने में कतई संकोच नहीं है। यह बात नहीं है कि पुरूष इससे पीछे हैं उन्हें भी सेक्सी कहलाये जाने में कोई ऐतराज नहीं लेकिन महिलाएं इस शब्द को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रही हैं। अब किसी सुन्दर महिला को ब्यूटीफुल कह देने भर से काम नहीं चलेगा। ब्यूटीफुल तो हर कोई है। कौन कहता है हम सुन्दर नहीं? लेकिन सेक्सी कोई ही कोई होता है।

अब इन सेक्सी दिखने वालों के लिए ब्यूटीफुल शब्द यदि भूले से ही इस्तेमाल हो जाए तो समझो तुम्हारी खैर नहीं। इसलिए भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहकर सेक्सी ही कहें तो ही अच्छा रहेगा। इसी में हमारी और तुम्हारी भलाई है। बस यही मेरी आपसे विनती है।

Wednesday, November 5, 2008

गरीब की लुगाई पूरे गांव की भौजाई।

बात बिल्कुल ताजी है। ताजी इसलिए कि अखबार और मीडिया में यह खबर प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हो रही है। जी हां हम बात कर रहे हैं महाराष्ट्र में हाल की घटित घटनाओं की।

हाल ही में महाराष्ट्र के राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों और बिहारियों पर की गयी टिप्पणियों पर गहमा-गहम बहस जारी है। चारों तरफ यही चर्चा है कि कल की मुख्य खबर क्या होगी। और हो भी क्यों न इस महीने की मुख्य खबरों में इसे तवज्जो जो दी गयी है। मुझे तो यहां तक यकीन है कि इस वर्ष के सप्ताहांत के अंतिम दिनों में इस घटना को भी अन्य प्रमुख राष्ट्रीय घटनाओं की तरह प्रमुखता दी जायेगी।

मुझे राज ठाकरे के बयान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हैं लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि उसके भड़काऊ भाषण और बयानबाजी से बिहारियों और उत्तर भारतीयों के गरीब वर्ग की जनता को बहुत कष्ट उठाने पड़े हैं। उन्हें आर्थिक नुकसान के साथ ही उनके जान-माल को भी काफी नुकसान पहुंचा है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस लूट-खसोट में मनसे के कार्यकर्ताओं के अलावा महाराष्ट्र के उपद्रवी और लुटेरे वर्ग भी संम्मिलित रहे होंगे। उपद्रवी और लुटेरों को तो इसी का इंतजार रहता है। उनकी यही रोजी-रोटी है और यही धंधा।

जैसा कि विदित है कि इन सब घटनाओं से सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और मेहनतकश जनता को हुआ है जो रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार और शहर छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। वे महाराष्ट्र के बड़े शहरों मुम्बई के अलावा पुना और नागपुर जैसे शहरों में काम-धंधे के लिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि राज ठाकरे के बयान से सेलेब्रटी और अमीर वर्ग को नुकसान नहीं हुआ है, नुकसान उनका भी हुआ है लेकिन वह नुकसान केवल बयान-बाजी तक ही रहा। कहना ठीक होगा कि यह माफीनामे तक ही रहा। इसे क्रिया और प्रतिक्रिया की तरह ले सकते हैं।

देश के इन मेहनतकश और कमाऊ जनता पर अब देश के नेता और राजनेता दोनों ही रोटियां सेकने पर मशगूल हैं। उन्हें तो एक मुद्दा मिल गया जिसका उन्हें हर चुनाव में इंतजार रहता है। वो गठबंधन की इस राजनीति को भली भांति जान गये हैं। सबको पता है कि लोकसभा चुनाव सामने है सेंक लो जितनी रोटियां सेंकनी हैं फिर कंहा ऐसा मौका मिलेगा ! यही उनके बीच चल रहा है।

ये राजनेता एक दूसरे पर छींटाकशी कस रहे हैं। उत्तर भारत के एक प्रख्यात नेता ने तो यहां तक कह दिया कि वे अब ‘निर्दलीय अभियान समिति’ बनाकर पूरे सूबे का दौरा करेंगे और अपना तथा अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों का इस्तीफा दे देंगें। एक दूसरे नेता ने तो राज ठाकरे पर फतवा तक जारी कर दिया। अलग-अलग तरह के नेता अलग-अलग तरह के बयान भी दे रहे हैं। कोई कह रहा है कि वह महाराष्ट्रियों के खिलाफ नहीं है उन्हें तो सिर्फ राज ठाकरे को सबक सिखाना है।

महाराष्ट्र में भी एक अलग तरह की राजनीति शुरू हो गयी है। वहां के नेता भी बयानबाजी में पीछे नहीं हैं। कुल मिलाकर पूरे देश में आजकल मराठी-गैर मराठी, हिन्दी भाषी-गैर हिन्दी भाषी पर चर्चाओं का शोर है। इसका सीधा सा मतलब है वोट की राजनीति।

यह कहना अभी से ठीक नहीं होगा कि इस सस्ती और गंदी राजनीति से किसको कितना फायदा होगा मराठी नेताओं को या बिहारी या उत्तर भारतीय नेताओं को लेकिन इतना जरूर तय है कि इसके चक्कर में गरीब जनता जरूर पिस रही है और आगे भी यही होगा। बड़े बुर्जग सही ही कह गये हैं कि ‘गरीब की लुगाई, पूरे गांव की भौजाई’।

Saturday, October 25, 2008

दीवाली का बोनस

कुछ लोग दीवाली का इन्तजार दीवाली के अगले दिन से दुबारा करने लगते हैं। कारन जो भी हों. इन कारणों पर यदि ज्यादा लिख दिया तो हमारी खैर नही. इसलिए मैं इस बिन्दु पर ज्यादा जोर नही देना चाहता.

ऐसा कहते हैं की भारत एक कृषि प्रधान देश हैं। आज जो किसानो की हालत है वह किसी से छुपी नही है. जो भी अखबार पड़ता हैं न्यूज़ देखता है उसे हो पता ही होगा की किसान कितनी संख्या में आत्महत्या करने पर मजबूर हैं. अब यदि ऐसे में कहा जाए की उनको बोनस मिलता हैं या नही. चर्चा करना बेकार है.

आपने ऐसा कम ही सुना होगा की दीवाली के बाद किसी को बोनस मिला हो. लेकिन यह सत्य है. और वह बोनस देता है किसान अपने बैलों को. उत्तर भारत में ऐसी प्रथा है की दीवाली के अगले दिन बैलों को काम पर नही लगाया जाता. उस दिन उनकी छुट्टी रहती है. किसान खुद भी उस दिन आराम करते हैं. उस दिन किसान अपने बैलों को नहलाता है उनकी पूजा करता है और उन्हें अच्छा से अच्छा पकवान भी खिलाता है. तो अब यदि किसान अपने बैलों को बोनस देता है तो किसानो को भी बोनस मिलना चाहिए ये एक अनुत्तरित प्रशन है.

महिला और विकलांगता

भारत में महिलाओं को लैंगिक रूप से कमजोर समझा जाता है। इसका सीधा सा अर्थ है महिला पुरूष के बराबर काम नहीं कर सकती। उनके पास पुरूषों जैसी आजादी और उतने सामाजिक अधिकार भी नहीं है। इसके लिए वे निरंतर संघर्ष कर रही हैं और इसमें कुछ हद उन्हें कामयाबी भी मिली है। लेकिन मैं यहां पर एक आम महिला की बात न करके विकलांग बालिकाओं और महिलाओं पर लिखने की कोशिश करूंगा।

एक सर्वे से पता चलता है कि भारत में 5 करोड़ विकलांग हैं। जिनमें तक़रीबन 2 करोड़ की संख्या विकलांग महिलाओं की है। जिस समाज में लड़कियां पैदा होना ही अपशगुन माना जाता हो यदि उसी समाज में एक विकलांग बालिका का जन्म हो तो समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण क्या होगा इसकी कल्पना करना आसान ही होगा। जिन परिवारों में विकलांग लड़कियों का जन्म होता है उनके ज्यादातर परिवार में कुंठा और निराशा छायी रहती है। उन्हे यही चिंता रहती है कि इस लड़की का क्या होगा। उसका विवाह किस प्रकार होगा, आगे का जीवन वह कैसे काटेगी, किसके सहारे जियेगी। इसी प्रकार और भी बहुत सारे सवालों का जवाब ऐसे परिवारों के पास नहीं होता.

ऐसी विकलांग बालिकाओं की शिक्षा के प्रति परिवार का नजरिया बहुत संकीर्ण होता है। ज्यादातर परिवारों की आपस की राय यही होती है कि उसका पढ़ना-लिखना बेकार है। क्योंकि इन लड़कियों को रोजगार तो मिलने से रहा। ऐसा माना जाता है कि ये परिवार उनकी पढ़ाई की ओर ध्यान न देकर उनकी शादी की चिंता में रहते हैं वे सोचते हैं कि जितना खर्च हम इसकी पढ़ाई पर करेंगे उतना पैसा उसकी शादी में दहेज देकर उसका विवाह किया जा सकता है।

सामाजिक समारोंहों में भी इन विकलांग लड़कियों को नहीं ले जाया जाता। इस बारे में उनकी सोच होती है कि यदि उसे शादी में ले जायेंगे तो परिवार की बदनामी होगी और लड़की के साथ लोग दुव्र्यवहार करेंगे। जिसके कारण इन लड़कियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वे चिड़चिड़ी हो जाती हैं, उनके व्यवहार में रूखापन आ जाता है।

आज आम महिलाएं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वे नौकरी-पेशा में हैं, खुद पर निर्भर हैं। यहां तक कि पुरूषों के समान वेतन पर काम कर रही हैं और अच्छें पदों पर भी हैं। वहीं एक विकलांग महिला परिवार के किसी न किसी सदस्य पर निर्भर रहती है। उसे आम जरूरत तक के सामान के लिए परिवार और रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। विकलांग महिलाओं के बारे में आम धारणा यह बनी हुई है कि वह बाहर जाकर काम करने में असमर्थ है। उनकी दलील होती है कि दिल्ली जैसे शहरों में जहां भीड़-भाड़ वाली गलियां हैं, जरूरत से ज्यादा भरी हुई बसे हैं और गुस्सैल बस कंडक्टर हैं। ऐसी जगहों पर आम आदमी भी यात्रा करने से पहले एक बार सोचता है। इन जगहों पर इन विकलांग महिलाओं और बालिकाओं के लिए यात्रा करना कितना कठिन और खतरनाक है। इन सबके बावजूद भी विकलांग महिलाएं यदि काम के लिए निकलती हैं तो उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती। समाज इस बारे में उनके साथ भेद-भाव वाला रवैया अपनाता है।

इन विकलांग लड़कियों के परिवारों को उनकी शादी के लिए और भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। समाज की यह सोच है कि एक विकलांग महिला की शादी भी विकलांग पुरूष से होनी चाहिए ताकि वह उसकी भावनाओं की कद्र कर सके, उसकी देखभाल कर सके। यदि किसी विकलांग महिला की शादी आम पुरूष के साथ होती है तो परिवार को बहुत सारा दहेज देना पड़ता है। इसके बाद भी पति और उसके परिवार को यह आशंका बनी रहती है कि वह अपने बच्चे को संभाल पायेगी कि नहीं। इसीलिए इन विकलांग महिलाओं की शादी या तो किसी शादी-शुदा इंसान या किसी बृढ़े इंसान के के साथ कर दी जाती है।

इन सब चीजों के अलावा समाज और परिवार का नजरिया भी उनके प्रति ठीक नहीं होता। परिवार या रिश्तेदारों के ऊपर निर्भर रहने के कारण उनके साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। ताने कसना, अपमानित करना और जलील करना तो आम बात है। यहां तक कि उनके साथ ऐसे दुव्र्यवहार किये जाते हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं जैसे उपेक्षा करना, गाली-गलौच करना, शारीरिक प्रताड़ना देना आदि।

इन विकलांग महिलाओं और लड़कियों कि स्थिति में बदलाव लेन के लिए सरकार और बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं काफी प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज को भी एक जिम्मेदराना व्यवहार अपनाना होगा। जब तक समाज और परिवार उनके जीवन स्तर को सुधारने के लिए एक जिम्मेदाराना और व्यवहारिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता तब तक यह कहना कि उनके जीवन में बदलाव आयेगा कहना कठिन है।

आज जरूरत है इन विकलांग महिलाओं की पहचान करके उनके लिए जरूरी संसाधन जुटाये जायें। उनको रोजगार और स्वरोजगार दोनों तरह का सहयोग दिया जाये। उन्हें सिलाई-कढ़ाई के अलावा आधुनिक तकनीका का ज्ञान भी दिलाया जाये। इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे और भी काम हैं जिन्हें बैठकर किया जा सकता है जैसे पत्रकारिता, ग्राफिक्स डिजाइंन, आफिस मैनेजमेंट, अध्यापन और सलाहकार आदि में भी उनको शिक्षित किया जाये। इसके बाद हम देखेंगे जैसे ही समाज का नजरिया बदलेगा वैसे ही उनके जीवन में बदलाव आयेगा और वह समाज का एक हिस्सा बनकर आम नागरिक की तरह जीवन यापन कर सकेंगी!

Friday, October 24, 2008

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये
मन मांगी मुराद सबको पावन अवसर पर मिल जाये

पहले दीवाली कैसी थी इसका कुछ मैं वर्णन कर दूं
जी चाह रहा है इसी तरह मन को अपने हलका कर लूँ?

याद आ गये बचपन के दिन
छुटपन के दिन, खुशियों के दिन

कभी पटाके नहीं जलाये क्येकि मुझे डर लगता था
अभी मिठाई अभी मिलेगी हरपल ऐसा लगता था।

यार दोस्त सब मिलजुल कर हम खेल खेलते सुबहो शाम
करते थे ना कोई काम, करते थे ना कोई काम,

गुल्ली-डंडा खूब खेलते, सांझ सुबह का ख्याल नहीं
अम्मा डंडा लेकर आये, बापू की परवाह नहीं

इस प्रकार दिन कट जाते थे, जब तक खुलते स्कूल नहीं
फिर हो जाती थी तैयारी पढ़ने की क्योंकि दिसम्बर दूर नही।

अब दीवाली कहां रही इस बार दीवाला हो ही गया।
यह देश कहां से कहां गया, सेंसेक्स कहां से कहा गया।

अब खेल को गेम बोलते हैं, उसका ही सारा चक्कर है
जो जीत गया वो जीत गया जो हार गया वो कहां गया?

अब शोर-शराबा है ऐसा,
डर लगता है कैसा-कैसा

कहीं पटाके और अनार में कोई बम ना आ जाये
इस हंसती-खिलती दीवाली में मातम फिर ना छा जाये

प्रभु ऐसा उपाय कर दो,
रोशन जग पूरा कर दो

'शिशु' की यही कामना है,
दूजी नहीं ‘भावना’ है।

प्रभु फिर से तुम आ जाओ
किसी वेश में किसी वेश में,
फर्क न पड़ता किसी देश में

इस जग का उद्धार करो
जीवन नैया पार करो

सुख-शान्ति चहुं ओर बिखेरो
सपने सबके खूब उकेरो

मनोकामना पूरी हो
अधंकार से दूरी हो

और रोशनी छा जाये
चहुँदिश खुशियाँ आ जायें।

Thursday, October 23, 2008

तेरी कसम......

हमारे देश में कसम खाने और कसम खिलाने की परम्परा प्राचीन काल से चलती आ रही है। ऐसा माना जाता है कि राजा हरिश्चंद्र ने अपनी कसम पूरी करने के लिए पत्नी और बच्चे तक को एक मेहतर के हाथ बेंच दिया था। पुराणों में एक कथा है कि अयोध्या के राजा दशरथ की प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उनके पुत्रों ने 14 वर्ष तक का जंगल में बिताये, इस दौरान उन्हें वहां गंभीर परिस्थियों का सामना करना पड़ा। ऐसा कहते हैं कि उस समय कसम को पक्का वादा या सौगंध कहते थे और उस सौगंध को पूरा करने के लिए लोग अपनी जान तक की बाजी लगा देते थे। उनके लिए कसम तो एक प्रतिज्ञा होती थी।

आधुनिक युग में इसी को ध्यान में रखते हुए कसम अदालतों में अपराधी और गवाहों को खिलाई जाती है। जैसा कि सर्वसत्य है कि बदलाव प्रकृति का नियम है और इन्हीं बदलावों के फलस्वरूप इन कसमों की परिभाषा भी अब धीरे-धीरे बदलने लगी है। अब कसम को मजाक में लिया जाता है। यदि लड़का फिल्म देखकर आये और बाप पूछे कि बेटा कहां से आये हो। बेटा पहले ही बोल देगा ‘कसम से पापा मैं अपने दोस्त के घर से आ रहा हूं। बाप को भी पता है कि बेटा कसम खा गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दोस्त के घर से ही आ रहा है। बाप ने खुद भी तो अभी भाग्यवान (पत्नी) के सामने कसम खाई है कि वह ऑफिस से टाइम से निकले थे लेकिन रास्ते में ट्राफिक मिल गिया इसलिए लेट हो गये।

ऐसा मन जाता है कि पहले कसमों का कोई उतार नहीं था। शायद इसलिए लोग अपनी कसमों पर अडिग रहते थे। पुराणों, ग्रंथों के जानकार बताते हैं कि पहले का युग धर्म-कर्म का युग था। लेकिन अभी के युग का क्या? मैं पूछता हूं क्या आज का युग धार्मिक नहीं है? आज तो और अधिक मंहगे मंदिरों का निर्माण हो रहा है और इतना ही नहीं इन मंदिरों में भक्त जनों की लम्बी-लम्बी कतारें भी देखी जा सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं। आज के युवा शायद अब कसम पर उतना ध्यान नहीं देते। वैज्ञानिक युग जो है।

ऐसा नहीं कसमें अब खायी नहीं जातीं, कसमें अब भी खायी जाती हैं फर्क बस इतना है उन कसमों के आगे झूठ लग गया है। अब कसमें झूठी खायी जाती हैं। आज का प्रेमी ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो अपनी प्रेमिका का सामने कसमें न खाये। और वो कसमें भी ऐसी वैसी नहीं, वो कसमों खायी जाती हैं साथ जीने और मरने की। प्रेमिकाएं भी अपने पूर्व प्रेमियों की कसमें खाकर कसमें खाती हैं। भारतीय अदालतों का तो कहना ही क्या? आदमी गीता पर हाथ रखकर कसम खाता है और अदालत से निकलकर सीधे मंदिर जाकर कसम उतार आता है। या ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि पंडित जी को कुछ पैसा-टका देकर टटका-टोना करा दिया। बस। मामला खतम। भारत के राजनेता तो इसलिए कसम खाते ही नहीं वो तो वायदे करते हैं और वायदे तो वायदे हैं उन्हें तो आसानी से तोड़ा जा सकता है।

यदि कसम खाने और तोड़ने की गिनती की जाये तो पता चलेगा कि पचासों हजार कसमें रोज खायी जाती हैं और उतनी की संख्या में तोड़ी भी जाती हैं। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तो भाषा की कसम बन गयी है। इन जिलों में तो बाकायदा कसम में ही बात होती है। ‘तेरी कसम यार मैं अभी-अभी खाना खाकर आ रहा हूं’, तेरी कसम यार आज मैंने ऐसी लड़की देखी जिसके दो-दो ब्यायफ्रैंड, तेरी कसम यार मैं आज मरते-मरते बचा। अब उसे कौन याद दिलाये कि बच्चे अपनी कसम खा दूसरे की क्यों खाता है लेकिन दूसरे का भी तो वही हाल है वो कहता है तेरी कसम यार मैं तेरे पैसे कल तक जरूर दे दूंगा। तेरी कसम।

आप पूछेंगे कि यह क्या ऊट-पटांग लिखता रहता है तो मेरा भी जवाब यही होगा तेरी कसम यार अगली बार यह नहीं लिखूंगा।

Wednesday, October 22, 2008

गरीब, गरीबी और गंदगी........

गरीबी हिसां का एक बद्तर रूप है। - महात्मा गांधी

सिक्के के दो पहले होते हैं यह सभी जानते हैं और मानते भी हैं लेकिन उस समय क्या कहेंगे जब तीन चीजें सामने आ जायें जैसे गरीब, गरीबी और गंदगी। ये तीनों एक दूसरे के न होकर एक तीसरे के पूरक हैं। ऐसा माना जाता है कि गरीब से गरीबी बनी और गरीबी से गंदगी। और कहेंगे भी क्यों नहीं क्योकिं उनका वाह्य आवरण और उनके रहने-सहने के तरीके से ऐसा ही तो लगता है!

शहर वाले मानते हैं कि गंदगी गांव से आयी है। मतलब गांव से गरीब आये और और गंदगी साथ लाये। इसलिए शहरी गरीब को गांव की गरीब की तुलना में ज्यादा गंदा माना गया है। शहरी गरीबों के गंदगी में रहने के कारणों पर बहुत ही कम लोग चर्चा करते हैं। और जो लोग चर्चा करते भी हैं वो गंदगी के कारणों पर न करके उसके उपायों पर करते हैं।

मुद्दा यह है कि गरीब को ही क्यों गंदा कहा जाता है जबकि शहरों का ज्यादातर कूड़-कचरा बीनने वाले ये बेचारे शहरी गरीब ही तो होते हैं। ऑफिसों में काम करने वालों से लेकर घर में काम करने वाले ये सभी शहरी गरीब ही तो हैं। इधर ऑफिसों में आदमी साफ-सफाई का काम करते हैं उधर बड़ी-बड़ी कॉलोनियों के घरों के उनकी औरतें सफाई का काम करती हैं। यहां तक कि उनके बच्चे भी इसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए कूड़ा-कचरा बीनते नजर आते हैं। बात यह है कि उनको हमारी और आपकी सफाई से मौका ही नहीं मिलता कि वो अपनी साफ-सफाई रख पायें। इसके अतिरिक्त सामाजिक उपेक्षा का कारण भी उनको साफ-सफाई रखने में बाधक है। समाज का नजरिया उनके प्रति नकारात्मक है। उनको पता है यदि हम साफ-सुथरे भी रहेंगे तो भी कहने वाले यहीं कहेंगे कि हम गंदे हैं। हमारे घर गंदे हैं। इसलिए उन्होंने अपने को अपने हाल पर छोड़ रखा है।

इन गंदी बस्तियों को साफ रखने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चला रखी हैं जैसेः एकीकृत कम लागत सफाई स्कीम (आई।एल.सी.एस.), शहरी स्थानीय निकाय, स्लम उन्मूलन बोर्ड, विकास प्राधिकरण, सुधार न्यास, जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड इत्यादि।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय विकास एजेंसियां भी इन शहरी बस्तियों में साफ-सफाई के लिए काम कर रही है। बहुत सी छोटी-छोटी बस्ती आधारित संस्थाएं भी साफ-सफाई के लिए काम करती नजर आती हैं।

इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में विभिन्न योजनाओं चला रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने स्लम सेनिटेशन प्रोग्राम नामक स्कीम चला रखी है जो मुम्बई की स्लम बस्तियों में शीवर और सफाई का काम देखती है। सफाई व्यवस्था में दिल्ली सरकार का एक अपना तरीका है वह यह देखती है कि जिस स्लम में ज्यादा गंदगी होती है उस स्लम बस्ती को ही साफ कर देती है। पिछले साल उसने दिल्ली की खूब सफाई की। उसका तो मानना है ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’। इन सभी योजनाओं के चलने के बाद भी बात कुछ बनती नजर नहीं आ रही है। दिल्ली सरकार तो दिल्ली को रानी बनाने पर तुली है।

बहरलाह हकीकत से दूर भागते इस सारे परिवेश में जो बात मुझे नजर आ रही है वह यह है कि इन शहरी गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना। यदि उन्हें सही तरह का रोजगार मिले तो यह निश्चित है उनके रहन-सहन के स्तर में भी बदलाव आयेगा। इसके अतिरिक्त उनकी प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर जनस्वास्थ्य के प्रति लोेगों में जागृति पैदा की जाए, सभी लोगों को साफ पीने का पानी तथा भर पेट भोजन उपलब्ध कराया जाए, उन्हें गांव में ही समुचित रोजगार दिए जाएं। ताकि शहरों की तरफ पलायन रूके। समाज का नजरिया भी उनके प्रति बदलेगा। वो अपने बच्चों को पढ़ा सकेंगे और पढ़े-लिखे बच्चे आगे से आगे विकास में सहभागिता निभायेगें तथा अपनी बस्ती और अपने घरों को स्वच्छ रखने में अपने परिवार की मदद कर पायेंगे।

साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा
साफ़ - सफाई सबको प्यारी,
हमको प्यारी, तुमको प्यारी।
लेकिन एक मजबूरी मेरी,
मिलती नही मजूरी पूरी।
घर-परिवार करे मजदूरी
अभी बात है यहीं अधूरी
बेटा, बेटी कूड़ बीने,
तब जाकर होता है खाना
पानी बस हम पी लेते हैं,
हफ्तों होता नहीं नहाना।
साफ-सफाई का ये नारा,
लगता सबको ही है प्यारा
मैं भी कोशिश करता हूं कुछ,
कुछ करदे सरकार हमारा।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा -----

Tuesday, October 21, 2008

हम वह किताबें नहीं पढ़ेंगे

हम वह किताबें नहीं पढ़ेंगे
जिसमें लिखा है- ‘अंगूर खट्टे हैं’‘
गाय दूध देती है’
और ‘मधु मक्खी शहद’

गाय दूध नहीं देती
उसके बछड़े को बांधकर
उनके हिस्से का दूध छीन लेना
और कहना कि गाय दूध देती है
कहां का न्याय है।

हमें अस्वीकार है यह पढ़ना
कि मधुमक्खी शहद देती है
हम जानते हैं कि
उसके पूरे वंश का नाश करके ही
हम निकाल पाते हैं शहद

नौ दो ग्यारह अब तुम्हारे लिए रह गया है
अब वह हमारे लिए है
एक एक दो, दस एक ग्यारह

बात-बात पर बेंत फटकारना
और बिला वजह कान उमेठने का मतलब
अहिंसा नहीं होता।

यह कविता हरिहर प्रयास द्विवेदी की मूल रचना ‘भीगी बिल्ली’ से ली गयी है।

मुझे नहीं मालूम

किसी बात को नकारने के लिए एक यह कह देना ही काफी है ‘मुझे नहीं मालूम’

‘मुझे नहीं मालूम’ मैंने इसे लिखना ही क्यों शुरू किया आखिर इसका नतीजा भी क्या निकलेगा। ये भी कोई लिखने की बात है। ‘मुझे नहीं मालूम’। लेकिन वास्तव में ‘मुझे नहीं मालूम’ आप क्यों ऐसा सोचते हैं जबकि हर किसी भी बात का कोई न कोई मतलब जरूर होता है। ऐसे ही किसी भी बात को बिना सोझे समझे कह दिया ‘मुझे नहीं मालूम’। हां यह बात अलग है कि समझकर जब इंसान किसी बात को कह देता है कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तब और बात है।

भारतीय पुलिस इसी ‘मुझे नहीं मालूम’ के चक्कर में कितनी बार चक्कर में पड़ जाती है। अपराधी कहता है उसे नहीं मालूम कि क्यों उससे यह मालूम कराया जा रहा है जबकि उसे नहीं मालूम। पुलिस कहती है ‘मुझे मालूम है ’, अरे जब पुलिस को मालूम है ही तो ‘मुझे नहीं मालूम’ फिर उस इंसान को क्यों परेशान कर रहे हो जो बार-बार कह रहा है उसे नहीं मालूम। अरूषि काण्ड में उत्तर प्रदेश पुलिस की तो इसी के कारण फजीहत तक हो गयी। पुलिस बार-बार कहती रही कि डॉ तलवार को मालूम है लेकिन डॉ तलवार बार-बार कहते रहे कि उन्हें नहीं मालूम। बात सी।बी.आई तक आ गयी। लेकिन मामला वहीं का वहीं रहा नहीं मालूम। सुना है अब यू.पी पुलिस भी कह रही है उसे नहीं मालूम।

बच्चे जब किसी बात पर कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम तब समझ में आता है कि चलो बच्चा है नहीं मालूम लेकिन उम्र दराज लोग जब कहते हैं कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तब मुझे मालूम होता क्यों यह लगता है कि बच्चे को वास्तव में नहीं पता होगा क्योंकि जब बच्चे के बाप को नहीं मालूम तो बच्चे को कैसे मालूम होगा। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि शादी की 40वीं और 50वीं वर्षगांठ मना चुके इंसान को भी उसकी बीबी कहती है कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तुम ऐसे हो। यानी पूरा जीवन साथ बिता दिया लेकिन फिर भी नहीं मालूम।

आजकल तो इसके बारे में लोगों का नजरिया बदल गया है जब वे कहते हैं नहीं मालूम तो समझो इसे जरूर मालूम होगा और यदि कहता है कि मालूम है तो समझो नहीं मालूम होगा। कई बार लोग मालूम होते हुए भी कहते हैं मालूम तो है यार लेकिन मालूम होते हुए भी क्यू पचड़े में पड़ू इसी लिए ‘मुझे नहीं मालूम’ ही कहना ठीक है। आजकल कोर्ट और कचहरियों में यही तो हो रहा है। जिसको मालूम है वही नहीं मालूम की रट लगाये है और जिसे नहीं मालूम वह मालूम है की रट लगाये है। मामला रफा-दफा। बस। मनोचिकित्सकों का कहना है कि नहीं मालूम कहना एक बहानासाइट नामक बीमारी है। लेकिन ‘मुझे नहीं मालूम’ ऐसा होगा।

बात तब और दिलचस्प हो जाती है कि जब एक आदमी दूसरे आदमी की महानता का बखान करता है। ‘यार तुम्हें नही मालूम तुम क्या चीज हो’ पहला आदमी यह जानकर नहीं खुश होता कि दूसरे ने उसकी बड़ाई की है उसे तो यह मालूम हो जाता है कि या तो वह (बड़ाई करने वाला) उससे कोई चीज मांगना चाहता है या उसका ऐसा कहकर मजाक उड़ा रहा है।

पढ़े लिखे लोगों को ‘मुझे नहीं मालूम’ कहने की आदत बन चुकी है। अनपढ़ का क्या? उसे मालूम भी होगा तब भी कह देगा ‘मुझे नहीं मालूम’ और लोग भी विश्वास कर लेंगे कि अनपढ़ है इसलिए नहीं मालूम होगा। और ये अनपढ़ लोग ये भी बड़े ढीठ होते हैं जब तक पड़े लिखों से ‘मुझे नहीं मालूम’ न कहवा लें तब तक दम नहीं लेते। अब देखिये-एक बार एक अनपढ़ ने मुझसे कहा ‘दो और दो कितने होते हैं?’ मैंने कहा चार। ‘ठीक है पढ़े लिखे हो’। अनपढ़ ने कहा। अच्छा यह बताओ भला यह क्या लिखा है (एक टेढ़ी-मेढी लकीर बनाकर)। मैने कहा ‘मुझे नहीं मालूम’। मैं यही तो सुनना चाहता था। अनपढ़ का जवाब था। अरे इतना भी नहीं मालूम यह बद्धा मूतनि है (बैल के पेशाब की डिजाइन)।

पाठकगण भी सोच रहे होंगे कि यह भी क्या बेमतलब की बात लिखे जा रहा है। मेरा तो यही जवाब होगा ‘मुझे नहीं मालूम’।

Monday, October 20, 2008

झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों का दर्द

झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग चाहें जिस भी शहर और प्रांत से आते हों उन्हें बिहारी मान लिया जाता है। बिहारियों को यह बात भले नागवार लगती ही है लेकिन जो बिहारी नहीं हैं उनका क्या? बात यह कि झुग्गियों में गरीब एक जगह जुटते हैं फिर वह किसी भी प्रांत से आये हुई हों। यह शहरी गरीब किसी न किसी गांवो की उपज हैं। लेकिन शहरों में जिस प्रकार से इस तबके को एक हीन भावना से देखा जाता है उससे कहीं न कहीं हर आने वाला व्यक्ति न चाहते हुए भी अपनी पहचान को झुपाने के लिए मजबूर हो जाता है और अपने मूल स्थान की जगह अपने को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा या साउथ का हूँ ऐसा कहते हैं। लेकिन साउथ वाले तो अपने राज्य तक का नाम नहीं बताते। उन्हें तो पता है कि क्या फर्क पड़ता है तमिलनाडु बतायें तब भी साउथ के और आंध्र प्रदेश बताये तब भी रहेंगे। शहर में रहने वाले इन गरीबों को गरीब न कहकर शहरी गरीब कहा जाता है। तो अब आगे से इन्हें गरीब न कहकर शहरी गरीब ही कहेंगे।

ज्यादातर शहरी गरीबों के पास न वोटर कार्ड है और न राशन कार्ड। वे दिल्ली के कानूनी शहर में नहीं आते। इन शहरी गरीबों की संख्या कितनी है यह अनुमान लगा पाना कठिन है। आंकड़ों का क्या, वो तो भारतीय राजनीति की तरह बदलते रहते हैं। फिर भी सरकारी फाइलों में दो तरह के स्लम दर्ज हैं। स्वयंसेवी संस्थायों (NGO) की भाषा में इन्हें लिस्टेड और अनलिस्टेट कहा जाता है। इन शहरी गरीबों की संख्या वर्तमान दिल्ली की 18 मिलियन जनसंख्या के आधी है। (source : as per Economic survey, Government of the National capital Territory of Delhi, 2007-08)

ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर शहरी गरीब मजदूरी करते हैं। मजदूरी भी दो तरह की करते हैं-रोजनदारी पर काम करने वालों को दिहाड़ी मजदूर कहते हैं और जो कम वेतन पर काम करते हैं उन्हें केवल मजदूर कहा जाता है। दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर गारा-ईंट, मिस्त्री, भिस्ती, पुताई-रंगाई, ट्रकों से सामान उतारने से लेकर रिक्शा खींचने तक का काम करते हैं। और मजदूर कहे जाने वाले लोग फैक्ट्रियों, में सिलाई, ऑफिसों में झाड़ू पोंछे आदि का काम करते हैं।

कुछ शहरी गरीब, गरीबों की जिंदगी के सामान बेचते हैं। जिसमें हरी सब्जी-फल से लेकर मिट्टी-प्लास्टिक के बरतन, कपड़े नये-पुराने, चाट-पकौड़े, मसाले आदि। चूंकि यहाँ सब कुछ थोड़ा सस्ता मिलता है इसलिए मध्यवर्गीय कोलोनियों में रहने वाली औरतें भी हरी-हरी सब्जी खरीदने का मोह नहीं छोड़ती। वे भी अपनी पड़ोसन से नजरें बचाती हुई कुछ साग-सब्जी ले ही लेती हैं।


जब से दिल्ली सरकार ने इन झोपड़ियों को हटाने का काम शुरू किया है तबसे ऐसा लगता है इनकी संख्या अचानक बढ़ गयी है। क्योंकि अब झुग्गियों में वो अपने सगे-संबधी के घर में पनाह लिए हुए हैं। आखिर कहां जाते मजदूर बेचारे। जाते तो कहां रहते? उनके बच्चे कहां पढ़ते? अपनों से कट कर वे जिंदगी से कैसे जुड़ते? ज्यादातर यहीं कॉलोनी-कॉलोनी घूम कर दाल रोटी के अवसर खंगालते रहे। अचानक कॉलानी में ग्रूप बनाकर घूमने वाली और घर का काम में हाथ बंटाने वाली, चौका बत्र्तन करने वाली, झाड़ू पोंछा करने वाली औरतों की बाढ़ सी आ गई है वे घर-घर जाकर काम के अवसर तलाशने लगीं। कई दफा उनकी आपस में झड़पे भी हो जाती।

दिल्ली के शहरी अमीर कह रहे हैं कि आजकल घरों में काम करने वालों के दाम बहुत बढ़ गये हैं। जबकि उनको यह कहते हुए स्वयं सुना जाता है कि आजकल मंहगाई बढ़ गयी है। तो सवाल यह उठता है कि मंहगाई क्या उन शहरी अमीरों के लिए बढ़ी है। क्या शहरी गरीब इससे अछूते हैं। सवाल का इंतजार है?

अगले जनम मोहि गदहा बनइयो.... (हास्य व्यंग)



इंसान को यदि आज तक कुछ मुफ्त में मिलता आ रहा है तो वह ताज है गधे का। साधारण सी बात है आम बोलचाल में ही भी किसी न किसी को गधा कह दिया जाता है। ऐसा नहीं कि किसी गधे को ही गधा कहा जाता है (ज्यदादातर लोग सोचते

हैं कि बेवकूफ इंसानों के लिए ही गधा शब्द बना है) लेकिन मेरी समझ में तो विद्वान मनुष्य इस पदवी से पहले नवाजे जाते हैं। आज की बात मैं नहीं कह सकता लेकिन पुराने समय में अभी कोई 10 साल पहले स्कूल में यदि कोई पहली पदवी मिलती है तो वह है गधे की मिलती थी।

बहुधा लोग अपने आप को ही गधा कहने लगते हैं। ‘‘क्या है गधा हूं हैं’’ ऐसा कम ही लोग कहते हैं। ज्यादातर लोग कहते हैं यार मैं तो बस गधा हूं इधर ऑफिस में और उधर घर में। शादीशुदा इंसान को तो और भी गधा समझा गया है और यदि शादी नहीं करे तो भी गधा कहा गया है। लेकिन गधे को क्या उसकी शादी हो या न हो फिर भी वह गधा है।

वास्तविकता यह है कि ज्यादा काम करने वालों को गधा कहा जाता है। यार-दोस्त कहते हैं - क्या यार गधे ही तरह दिन भर काम करने रहते हो। और यह भी सत्य है कि यदि गलती से भी कोई गलत काम हो जाये तो भी कहा जाता है कि गधा है क्या इतना काम भी नहीं कर सकता। लोग तो यहां तक कह देते हैं गधे हो क्या देख कर काम नहीं कर सकते। मैं कहता हूं भाई इसमें देखने वाली तो कोई बात ही नही हो सकती, यह तो सभी को मालूम है कि गधा अंधा नहीं होता, तो आप किसे गधा कहेंगे गधा कहने वाले को या गधा कहे जाने वाले को। शायद ही किसी ने सुना होगा कि कामचोर इंसान को गधा कहा गया हो। मैं तो यह कहता हूं कि ज्यादा काम करने वाले को गधा कहा जाता है।

मौका परस्ती लोग तो गधे को बाप समझते ही हैं लेकिन ज्यादातर भारतीय नारियों ने अपने पतियों को गधे की पदवी दे रखी है। वे अपने बेटों से कहती हैं आने दो अपने गधे बाप को उल्लू कहीं का। ठीक से एक काम भी नहीं कर सकता। अब वो गधी तो हैं नहीं इसलिए वो ऐसा बोलती हैं। उनका मतलब होता है बाप गधा। बेटा उल्लू। मतलब साफ बेटा भी गधा और बाप भी उल्लू। बेटा यह सोचकर संतोष कर लेता है चलो मां ने कम से कम हमें गधा तो नहीं और बाप यह समझकर संतोष कर लेता है कि चलो कम से कम मैं उल्लू तो नहीं हूं। हां यह बात अलग है कि दोनों गधे हैं और दोनों उल्लू।

उनका किसी भी धर्म और मजहब से कोई लेना देना नही। उन सबका तो मालिक एक है और वह है इंसान। इधर इंसान को देखो हिन्दू भी कहता है सबका मालिक एक यानी भगवान। मुसलमान कहता है सबका मालिक एक यानी खुदा और ईसाई कहता है सबका मालिक एक यानी ईसा मसीह वगैरा...वगैरा॥ लेकिन गधा। मैं फिर एक बार कहूंगा कि गधा तो गधा है। गधे का किसी देश और भाषा से भी मतलब नहीं है हां यह जरूर कह सकते हैं कि भारत में गधे को गधा कहा जाता है वहीं विदेश में उसे दूसरे नामों से पुकारा जाता है पर क्या फर्क पड़ता है अनुवाद करने के बाद तो उसे भी गधा ही कहा जायेगा। संस्कृत का यह श्लोक शायद गधों के लिए ही लिखा गया होगा- ‘‘तु वसुधैव कुटुम्बकम’’।

अब यदि बात की जाये कि जानवरों में सबसे सीधा जानवर कौन है तो लोग यही कहगें कि गधा। कुत्ता कितना ही वफादार क्यों न हो मालिक को काट ही लेता है यह एक मुहावरा है और मुहावरा कभी गलत नहीं बना, ऐसा सयाने लोग कहते हैं। किसी भी दुष्ट इंसान के लिए गधे का प्रयोग नहीं किया गया उसे कुत्ता, सुअर, सांप, बिच्छू, सब कह सकते हैं लेकिन क्या गधा कहेंगे, जवाब आयेगा नहीं। फिर भी लोग कुत्ते की जगह गधे को नहीं पालते। बात यह है कि उनके मन में एक डर बैठ गया है कि यदि उस गधे को पाला तो इस गधे (पालने वाले) की घर से छुट्टी।

यह गधा ही है जो पुराने समय औरतों के सम्मान के लिए अपनी पीठ पर उन सभी अत्याचारियों और जुल्म ढाने वालों का बोझ उठाता आ रहा है। वरना क्या यह बात ठीक है कि एक सीधे सादे जानवर पर यह करना उचित है कि नहीं। शायद इसलिए बिठाते हैं कि गधा बेवकुफ है। मुझे यह बात आजतक नहीं समझ में आयी कि आखिर गधे पर ही क्यों, शेर पर या चीते पर क्यों नही। रेगिस्तान में होने वाली ऊंट दौड़ के लिए उसे रेगिस्तान भेज दो उस पापी को। इस बेचारे गधे पर क्यों। इतिहास गवाह है कि सदियों से लेकर आज तक किसी गधे ने किसी भी इंसान को कोई नुकसान पहुंचाया हो।

इस सबसे मुझे एक बात समझ में आ गयी कि इंसान से ज्यादा गधा बने रहने में अच्छाई है, क्योंकि जब मनुष्य योनि में जन्म लिया तब तो गधा कहा ही जाता है और यदि गधा बनेगें तो भी गधा ही कहा जायेगा।

प्रभु मेरी भक्ती यदि सच्ची।
बात करूं मै अच्छी-अच्छी।।
तो ऐसा दे दो वरदान।
गधा बनू मैं गधे समान।।

Saturday, October 18, 2008

शब्दों का महत्व

लोकत्रांतिक देशो में 'च' शब्द का बहुत महत्व है ! मतलब चुनाव ! भारतीय सभ्यता और संस्कृति में आदिकाल से ही 'च' शब्द को बहुत मायने मिले हैं! प्रख्यात हिन्दी कहानी कर एवं उपन्यासकार प्रेमचंद की कहानियौं में च शब्द के कारन ही दलित और अदिवासियौं पर कम कराने वाली संसथायों सा सामने जवाबदेय बनाया जा रहा है !

हिन्दी साहित्य में यह एक अकेला शब्द है जिससे दो समानार्थी और विपरीत शब्दों सा जन्म हुआ है जैसे एक तो चतुर और दूसरा चूतिया। यह वाही 'च' है जिससे चौराहा बना है और इसी चौराहे के कारन पुलिस और पब्लिक के बीच नोकझोक चलती है पुलिश कहती है पब्लिक यातायात नियमो का पालन नही कराती और पब्लिक कहती है पुलिस घूश लेती है! यदि ये 'च' चौराहा नही होता तो ये सारा झंझट ही नही होता!

इसी शब्द से कितनी ही जेलों का निर्माण हुआ है ! मेरा मतलब यह है की यदि 'च' से चोर नही होता तो जेलों की क्या जरूरत पड़ती! और तो और ऑफिस में कम कराने वाले लोगो को जो बोस से ज्यादा नजदीक होते हैं उन्हें इसी 'च' से कारन ही चापलूस और और चमचा कहा जाता है ! अभी हाल ही में इसी 'च' से ही तो किसान नेता महेंद्र सिंह को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा !

चुल्लू भर पानी में डूब मरना भी तो इसी 'च' से बना है ! बाजार में आज इतनी महंगाई नही होती यदि इसी 'च' से चांदी नही बनी होती ! इसी 'च' से आज बाबा लोगो की चांदी हो रही है! मतलब यदि इसे 'च' से यदि चिंता और चिता शब्द नही बना होता तो क्या उनसे प्रवचन कोई सुनने जाता !

यह वाही 'च' है जिसके कारन ज्यादा खट्टा मीठा खाने वाले को चटूहरा कहा जाता हैं! चुगुल खोर भी इसे से बना है ! अच्छे भले आदमी की इसी 'च' से कारन चमगादर तक कह दिया जाता है !

चलो अब इसे 'च' शब्द की अच्छयीओं पर एक नजर डालते हैं ! यह शब्द है जिससे चरखे की निर्माण और और जो भारत को आजाद कराने में आगे आया ! इसी चरखे ने गांधी जी को प्रसिद्दि दिलाई ! इसी 'च' से जवाहर लाल नेहरू को चाचा नेहरू कहा जाता है ! इसे 'च' से चम्मच शब्द बना है ! यदि ये 'च' नही होता तो दाल और सब्जी कैसे परोसी जाती ! रिश्ते में आने वाले प्रमुख शब्द चाचा और चाची की इसी से उत्पत्ति हुई है ! यदि से 'च' नही होता तो क्या गिनती के चार शब्द होते ! सदियों से चले आ रहे गुरु चेलो का सम्बन्ध भी तो इसे 'च' से है !

इसे 'च' से कारन चरण बना यदि चरण नही होते तो क्या आज भारतीय सभ्यता में चरण छूने का रिवाज होता ! तब शायद पाश्चात्य देशो की तरह चूमा चाटी चलती ! गरीबों का चना चबेना भी तो इसी से बना है !

हिन्दुओं का संवत भी तो इसी 'च' के कारन है यदि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य नही होते तो क्या ये हो पता ! कर्वाचोथ में महिलाएं ही 'च' से चाँद को देखकर ही तो पूजा करती हैं !

कितने ही हिन्दी फिल्मो के गाने इसी 'च' से फेमस हो गए जैसे - चोली के पीछे क्या है । ... चुनरी चुनरी - -- और बुजुर्गो के लिए आज भी वो चौधरी का चाँद हो .... अपनी जवानी याद दिलाता है ! इसी 'च' से बने गाने चंदा मामा दूर के ... से माताएं अपने बच्चो को सुलाती रही हैं.

हिन्दी में बहुत साड़ी कहावतों और मुहावरों का इसी 'च' से बहुत नाम है देखिये ---चोर चोर मौसेरे भाई .. चोरी और सीनाजोरी , , चिकनी चुपरी बातें.. चोली दामन का साथ ....चाट मंगनी पट ब्याह ... चमडी जाए पर दमडी न जाए.. चित भी मेरी पट भी मेरी ... चार दिन की चांदी फिर अंधेरे रात ... चोर से घर में मोर .. आदि आदि ... अब यदी इस 'च' पर लिखने लगो तो तुलसी दास की चौपाई भी तो इसी से बनी है !

मै बात बस इसलिए लिख रहा हूँ की भाई या तो 'च' से इस पर चुप्पी साध लो या इसी पढ़कर चतुर बन जाओ! नही तो ज्यादातर समाज और देश के सामने तुम चूतिया तो हो ही !

Friday, October 17, 2008

सखी वे मुझसे कहकर जाते....... (करवा चौथ)

सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलाते
तो क्या उनको नही पिलाती

मदिरा की तुम बात करो मत
और भी चीजे हैं पीने की
इससे नही भरा दिल सबका
कोई है क्या जो ये न माने
बात बात पर कसमे खाना
जीने मरने की वो बातें
भूखे कट जाती हैं रातें
फिर भी उनको याद दिलाती
बिना बर्फ के नही पिलाती

सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलाते
तो क्या उनको नही पिलाती


करवा चौथ तो मै हर दिन रहती
बिन खाए उपाय मै करती
किसी तरह से पैसा आए
प्रीतम पीकर खुश हो जायें
उनसे कुछ मै नही छुपाती
बात थी बस एक करवा चौथ की
अगले दिन मै याद दिलाती
सखी वे मुझसे कहकर जाते
तो क्या उनको नही पिलाती


सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलातेतो
क्या उनको नही पिलाती

हम शर्मिंदा हैं कि---

अभी हाल ही मैं मैंने एक फिल्म देखी, आतंकवाद के लिहाज से यह फिल्म काफी चर्चित है। शायद आप समझ गये होंगे फिल्म का नाम है -a wednesday. फिल्म में दिखाया गया है एक आदमी की जिंदगी आतंकवाद और दहशतगर्दी से परेशान है।

फिल्म काफी अच्छी है। इस फिल्म पर एक बात मैने से गौर की वह यह कि वह आदमी जब डायलॉग बोलता कि कोई मादर... हमारे घर में घुस कर हमें मारे और हम चुपचाप तमाशा देखते रहें। यह एक बहु-चचिर्त गाली है जो गांव-कस्बों से लेकर शहरों तक आम है। मैं बात कर रहा हूं कि कोई मादर.... ही क्यों क्या कोई गांडू नहीं कहा जा सकता था। लेकिन नहीं क्योंकि फिल्म पर तब वह डायलॉग शायद उतना नहीं अच्छा लगता। यह मेरी नहीं यह आम राय है।

आज महिला सशक्तिकरण का दौर हैं महिलाएं अपने अधिकारों और हक के लिए लड़ाई लड़ रही है। हजारों की संख्या में महिला शसक्तिकरण पर स्वयं सेवी संस्थाएं काम कर रही हैं। संसद में महिला आरक्षण बिल पर बहस चल नही है। लेकिन क्या ये गाली-गलौच की भाषा, जो पुराने समय से महिलाओं पर बनी है, रोक लग पायेगी कहना कठिन है। महिलाएं सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से हमेशा से ही पिछड़ी रही हैं! यह सब तो तभी रूक सकता है जब तक महिलाएं शैक्षिक दृष्टि से एक उचित समान-स्तर प्राप्त नहीं कर लेतीं। इतना ही नहीं समाज के सभी वर्गों की सामाजिक सोच जब तक नहीं बदलती तब तक यह कह पाना कि इन गालियों पर रोक लग पायेगी सम्भव नहीं है।
हम तो बस यहीं कहेगें कि हम शर्मिंदा हैं।

Thursday, October 16, 2008

मानसिक विकलांगता।

विकलांगता अभिषाप है या वरदान यह बात मेरे समझ से परे है। परन्तु यह कहना सही होगा उनके बारे में ‘‘हम भी इंसान हैं तुम्हारी तरह, न कुछ खास और न असाधारण। चलो इस सब को कुछ देर के लिए अलग रखे और देखें आखिर विकलांगता है क्या?


शरीर के किसी अंग में यदि कोई विकृति आ जाती है, आम बोलचाल की भाषा में उसे विकलांगता कहते हैं। जैसे चलने में परेशानी , दिखाई न देना, सुनाई न देना और बोलने में असमर्थता। लेकिन कुछ विकलांगत ऐसी है तो किसी को दिखाई नहीं देती, मतलब यह कि वह आंतरिक होती है। उसे समझना भी थोड़ा कठिन है। इसे कहते हैं मानसिक विकलांगता।


आजकल मानसिक विकलांगता काफी बढ़ रही है। शारीरिक विकलांगता को वैज्ञानिक तरीकों से ठीक किया जा रहा है या कहें उसे काफी हद तक छिपाया जा रहा है। सफलता भी मिली है इसमें। लेकिन मानसिक विकलांगा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। आज प्रति हजार नवजात शिशुओं में 1।5 से 3.5 तक बच्चे इससे पीड़ित हैं। गर्भावस्था में तनावपूर्ण जीवन इसका प्रमुख कारण है।


दूसरा प्रमुख कारण है गरीबी। गरीबी और विकलांगता का संबंध उसी तरह का जिस तरह अमीरी और गरीबी का। यहां तक बात तो ठीक थी लेकिन अब इसने अमीर वर्ग तक अपने हाथ फैलाने शुरू कर दिये हैं। jankar बताते हैं इसका कारण भौतिकवादी सोच है। भूमण्डलीकरण के दौर में हर इंसान सुख-समृद्धि चाहता है। और यह सुख-समृद्धि है-सामाजिक ऐशो -आराम के संसाधन, सामाजिक प्रतिष्ठा रौब-रूतबा। जाहिर सी बात है इतना सब कुछ पाने के लिए इंसान को जद्दोजहद तो करनी पड़ेगी। जिससे इंसान को अपनी क्षमता से अधिक काम करना पड़ रहा है। इतना ही उसे देर तक और दबाव में भी काम करना पड़ रहा है। शायद अब इसे और भी गंभीरता से लिया जा रहा है। बात यह है कि धनी वर्ग इस बीमारी को सबसे घातक बता रहा है। गरीब का क्या उसे तो समझौते करने की आदत जो बन गयी है। वह तो बस यही सोच कर तसल्ली कर लेता है हम तो गरीब हैं। बस।


जो भी हो इसे रोकने के तरीको पर अब गौर किया जाने लगा है। अस्पतालों में अब मनो चिकित्स की niyuktiaayan बढ़ाई जा रही हैं। सरकारी और अर्ध-सरकारी कम्पनियां बाकायदा अपने यहां मनोचिकित्स (सलाहकार) नियुक्त कर रही हैं। कारपोरेट जगत इससे कहीं बढ़कर आगे काम कर रहा है। वहां तो बाकायदा जिम, स्वीमिंग पुल, खेल और विभिन्न मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं। और हो भी क्यों न, ज्यादातर बीमारियां भी तो यही दे रहे हैं। यह तो वही बात हुई तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा दोगे। जैसा कि सर्व विदित है कि स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस में काफी सक्रिय होकर काम कर रही हैं।


हमें तो बस यही उम्मीद है यह समस्या धीरे-धीरे बढ़ने की बजाय जल्दी से जल्दी समाप्त हो जाये।

Wednesday, October 15, 2008

गरीबी की परिभाषा जो मुझे ठीक लगी।

‘गरीबी की रेखा एक ऐसी रेखा है जो गरीब के ऊपर से और अमीर के नीचे से गुजरती है।’ यह परिभाषा सैद्धांतिक भले न हो, व्यावहारिक और जमीनी तो जरूर है। गरीबी की रेखा के जरिये राज्य ऐसे लोगों को पहचानने की औपचारिकता पूरी करता है जो अभाव में जी रहे हैं। जिन्हें रोज खाना नहीं मिलता। जिनके पास रोजगार नहीं है। छप्पर या तो नहीं है या सिर्फ नाम भर का है। कपड़ों के नाम पर वे कुछ चिथड़ों में लिपटे रहते हैं। इन्हें विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा माना जाने लगा है। विडम्बना यह कि विकास का एक अहम् मापदण्ड भी यही है कि इन लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला जाए। इसी दुविधा में संसाधन लगातार झोंके जा रहे हैं। पिछले दो दशकों में इन गरीबों को गरीबी की रेखा से ऊपर लाने के लिए 45 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। पर अध्ययन बताते हैं कि निर्धारित लक्ष्य का केवल 18 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही हासिल किया जा सका है।

कौन जाने कल को इसी बहाने लिखने भी लगूं!

आज मैं फिर से लिखने बैठ गया। अभी लिखना शुरू ही किया था कि अचानक एक बात याद आ गयी। मैंने उसे उस बात को कहीं पर पढ़ा था। ठीक से याद नहीं कहां लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि शायद वह रसियन किताब थी।

लिखा कुछ इस तरह था-
इस जीवन में मरना तो कुछ कठिन नहीं,
किन्तु बनाना इस जीवन को इससे कठिन नहीं।

मैंने इसे इसे ऐसे कहा-
नया नहीं कुछ इस जीवन में मरना
पर जीना भी इससे नया नहीं।

यह मैं इसलिए नहीं लिखना चाह रहा था कि इसमें मरना लिखा है। पर बाद में सोचा कि जो सही है उसे लिखा तो जा ही सकता है। बात यह है कि सत्य को लिखे बिना रहा नहीं जाता। हां यह बात अलग है कि सत्य बोलना उतना आसान नहीं। लेकिन क्या लिखना कठिन है। इसमें लोगों की राय होगी नहीं। शायद नहीं।

जैसे कि मैंने ऊपर लिखा कि मैं लिखने बैठ गया। इससे तो ऐसा लगता है कई सालों से लिख रहा हूँ। लेकिन ऐसा नहीं, मैंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है। मैंने अभी-अभी एक किताब की समीक्षा पढ़ी थी उसमें लिखा था कि लिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाना जरूरी है सो आजकल मैं भी बढ़ाने लगा। सोचा शायद इससे मेरे लेखन में कुछ बदलाव आये। फिर सोचा यह तो लेखक लोग बढ़ाते हैं और मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं।

खैर जब लिखना शुरू कर ही दिया है तो अब रूकना कैसा? जो मन में आयेगा लिखूंगा। ऐसा मैने इसलिए लिखा कि कोई मेहनताने के लिए तो लिख नहीं रहा मतलब किसी अखबार या मीडिया के लिए। तो जो अखबार वाले चाहेंगे वो लिखूंगा अरे मैं तो अपने लिखने की भूख को शांत करने के लिए लिख रहा हूं। तो लिखूंगा। कहा भी गया है कि भूख मिटाने के लिए आदमी क्या-क्या नहीं करता, ठीक है। जीं हां इसमें कोई तर्क नहीं दे सकता। अब यह बात अलग है कि कुछ लोग तर्क औरह कुतर्क में माहिर होते हैं। उन्हें तो बस मसाला कहं या मामला कहंे, चाहिए और वो आ जाते हैं तर्क करने।

लिख मैं इसलिए भी रहा हूं कि कौन जाने कल शायद इसी बहाने लिख लगूं।

ललित साहित्य

देवी - देवताओं सम्बन्धी कल्पनाओ को धार्मिक साहित्य कहा जाता है मगर वास्तव में यह ललित साहित्य ही है = गोर्की

नासमझ कहीं का!

बचपन से एक कहावत सुनता चला आ रहा हूँ-‘‘पढ़िगै पूत कुम्हार के सोलह दूनी आठ’’। यह कहना गलत होगा कि कहावत में दम नहीं। कहावतें ऐसी नहीं बन गयीं। ऐसा सयाने लोग कहते हैं। जरूर ही कहावत में कोई न कोई गुप्त भेद छुपा होता है। सच्चाई छिपी होती है। कहने वाले यह भी कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि सभी कहावतों का मतलब निकलता ही हो। एक महायश ने कहा किसी भी काम में दो तर्क दिये जाते हैं- कोई भी काम मतलब को होता है और दूसरा उसी काम को बेमतलब का कहता है।

जाहिर है कि जो मैं यह लिख रहा हूँ कुछ लोगों के लिए बेमतलब की भी हो सकती है लेकिन मेरे लिए तो कम से कम मतलब की ही है। शायद उन लोगों को यह सुनकर भी अच्छा नहीं लगा होगा कि क्या बेमतलब की बात लिख रहा है। कहावत है-‘‘थूक और चाट’’। मतलब यह है कि गलत काम दुबारा नहीं होगा। यदि ऐसा नहीं किया तो खैर नहीं। इससे यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि गलती करने वाला इससे दुबारा गलती नहीं करेगा।

खैर इस बेमतलब और मतलब की बात पर बात करना तो वाकई बेमतलब है। इसका अंदाजा मुझे भी है। बात चल रही है मुहावरों की। तो जो ऊपर लिखा पहला मुहावरा है उसके बारे में मैने कुछ लोगों से विचार जाने, जिनमें कुछ लोग जाने माने हैं मतलब विद्वान लोग और कुछ अनजाने मतलब साधारण लोग बोलचाल की भाषा में कहें तो आम आदमी के विचार।

‘‘यह जरूर ही कुछ अनपढ़ लोगांे पर कहा गया होगा। जिसने भी यह कहा होगा वह अवश्य ही विद्वान होगा। नहीं, ऐसी बात नहीं, मेरा मतलब है कि जरूर विरोधी जाति का व्यक्ति रहा होगा जो उस अनपढ़ आदमी से जलता होगा। ऐसा भी हो सकता है कि वह ऐसा कहके उस व्यक्ति की भूल को सुधारना चाहता हो’’। यह कहने वाले थे स्वयं एक विद्वान, जो शायद या पक्की तौर पर प्रोफेसर थे। हां वही थे।

दूसरे व्यक्ति का नजरिया कुछ ऐसा था-‘‘शायद हिसाब-किताब में कुछ गड़बड़ी हो गयी होगी इसलिए बनिये ने यह कहा होगा। लेकिन इस लिए नहीं कि ‘वह व्यक्ति’ वास्तव में नासमझ था। बात यह थी बनिया ही उसे बेवकूफ बना रहा था।’’ यह धारणा आम आदमी की थी।

मेरी जागरूकता पता नहीं क्यों इस कहावत में इतनी ज्यादा बढ़ गयी। इसलिए मैं जाति से कुम्हार हूँ। लेकिन पेशे से नहीं। क्या यह भी बताना जरूरी था? जी हां इसलिए कि जाति और पेशे अलग-अलग दो बातें नहीं। नहीं, दो बातें ही हैं। कम से कम समाजशास्त्र की तो परिभाषा में तो यही आता

लोग कहते हैं कि कहावतें विद्वान मनुष्यों ने बनायी। जैसे ‘‘चोली दामन का साथ। सयाने लोग कहते हैं कि इसकी मतलब है बहुत गहरा रिश्ता। पर महोदय जब इसकी को कहेंगे कि चोली के पीछे क्या है। तब। समझो बात बिगड़ गयी। विद्वान लोग कहेंगे कि यह कहावत हो ही नहीं सकती। यह तो फूहड़ फिल्मी गाना है। जी हां। समझाओ जरा इसे यह कहावत कैसे बन गयी। अरे भाई इसमें भी तो चोली शब्द है। दूसरे ने तर्क दिया। क्या यह सुनकर गाली-गलौच और मार-पीट की नौबत नहीं आ सकती।

मैं भी क्या बेमतलब की बात लिखने लगा। मुझे तो बस यही समझना है कि उस उपरोक्त कहावत का मूल अर्थ क्या है। शायद यह मेरे लिए मतलब की बात है। यदि आपमें किसी को बेमतलब की बात लगी हो तो भी पढ़ना जरुर क्यूंकि यह जरुरी नहीं है कि यह आपके लिए भी बेमतल कि बात होगी!

Popular Posts

Modern ideology

I can confidently say that religion has never been an issue in our village. Over the past 10 years, however, there have been a few changes...